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ये भक्ति का द्युतकाल है कबीरा 10 सितम्बर 2017



ये भक्ति का द्युतकाल है कबीरा
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बहुतेरों ने गाया कबीर को
बहुतेरों ने समझाया कबीर को
ठेठ मालवे से मेवात तक के गवई मन ने
अमेरिका से पाकिस्तान के लाहौर तक के बन्दे ने
बेचा नही किसी ने कबीर को इतिहास में ऐसा

कुछ लोग बाहर निकले और जहां गए बस गए
कुछ लोग गोल गोल घूमे और गोल गोल करते रहें
कुछ नदी नालों और हैंड पम्पों के किनारे बैठ गए
जमुना को कल्पना में लाकर खुलकर दी चुनौती
और इतना उम्दा गाया कि जी उठा कबीर

ये मालवे के भोले लोग दिनभर की मेहनत के बाद
शाम दो रोटी खाकर बीड़ी पीते गा बजा लेते थे मस्त होकर
खूब गाते थे कबीर, घुस आए कुछ लोग,
बेरौनक हो गया मालवे का सुरूर,
इन्ही समाज के हाशिये के लोगों को
हकालकर कबीर को ओढ़ लिया स्वांग की तरह
चार सुरों से शुरू की दुकान और धँधा बना लिया
साथ मे थे मूढ़मति व्यवस्था के हरकारे
लुटाते रहे राजकोष इतना कि अभेद्य किले बना लिए इन्होंने

परम्परा सिर्फ ओढ़ी बेची नही हस्तगत कर दी पीढ़ी को
मालवे से मेवात, स्टेनफोर्ड से कराची में बिका खूब कबीरा
जो वाचिक का सत्व था वो लक्ष्मी के बरक्स ठोस हो गया
यात्रा में इकठ्ठे होते है हर बरस और पदवियाँ बटोरने में लगा है जगत अब
तुमने ही शुरू की ये सोहबतें मुहब्बत की और नष्ट कर दिया एक जगत को
आज गाती है आबिदा या कोई मालवे का खिलंदड़ तो इतना मुंह फाड़ता है कि कबीर होता तो सुनकर मर जाता
ये कबीर के होने के तो कतई कोई मायने नही
कबीर की आड़ में महफिलें सजाकर लूट लेने के नए अंदाज है कार्पोरेट्स को

एक फकीर जो छोड़ गया था एक कमजोर को हाले ज़िन्दगी पर
लौट आता है धूल, धुएं और गर्द के साथ अक्सर खोजते घर अपना
कबीर रोता है दादू और मछेन्द्रनाथ के साथ
कहता है अवधूता कुदरत की गति न्यारी
दुखी है तुकाराम भी कि अभंग भी बिकने लगे
और मालवा मेवात के लोक संसार के गीत भी कि
अब क्या रखा है रस बिक गया नोट की चकाचौन्ध में
ईमान और नैतिकता बेचकर कबीर चौरे प्रकाशमान हो रहें है।

© संदीप नाईक

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