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मौत का एक दिन मुअय्यन है - 6 जुलाई 2017

चारो ओर तेज ताप था, अग्नि की लटायें ऊंची उठ रही थी और कही दूर कुत्ते किसी चीज के लिए छीना झपटी कर रहे थे , एक आदमी दूर बेंच पर बैठा अपने पांवों को घूर रहा था। बगीचे में फूल थे पत्तियां थी जड़े भी होंगी ही हवा भी थी पर ना खुशबू थी ना सरसराहट - बस एक उदासी थी जो चहूँओर पसरी थी।

बचपन से अक्सर यहाँ आ जाता था वो क्योकि यही थे वो सब लोग जिन्हें वह लगभग ढोते हुए अपने काँधों पर लाया था कभी आंखों में आंसू थे और कभी मन मे तसल्ली कि जीवन के झंझावातों से शरीर मुक्त हो गया।

यह शहर के दूसरे किनारे पर बसा एक मैदान था जहाँ धीरे धीरे टपरे डलते गए, ईंट के चबूतरे बन गए, लोगों ने जीते जी तो माँ बाप को सम्हाला नही पर सब ओर संगमरमर के पत्थर नाम टाँक कर लगा दिए और खुद अमर होने के मुगालतों में जीने लगें।

अपने आप से कह रहा था वह - आज फिर उदास हूँ और आ गया हूँ इस जगह पर जहां सारे जाले साफ हो जाते है फिर तय किया है कि अघोरियों की तरह देर रात तक बैठेगा और अपने साथ लाये आलूओं को किसी जलती हुई लाश के सिर मुहाने बैठकर भूनकर खा लेगा पर हड़बड़ी में आज हरी मिर्च और नमक लाना भूल गया, कोई नई किसी हड्डी को फोडूंगा तो नमक का स्वाद तो मिल ही जायेगा।

यह दुनिया उसने बहुत समझने की कोशिश की पर कुछ समझ नही पाया बस हर बार एक लाश के रूप में अर्थ निकालता हुआ वह यहां तक आ गया और फिर वही देर रात तक बैठे रहते हुए वह भोर में शुक्र तारा देखकर घर लौटा । घर - उफ्फ, घर , दुनिया और यारी के नाम पर अब उसे चिढ़ होने लगी थी।

अचानक वह गिनने लगा कि कितनी बार अब तक वह यहाँ आया है और कौन लोग थे जिनके लिए वो आया और यह जगह उसके जीवन का ऐसा स्थान बन गई कि आये बिना वह रह ही नही सकता था , क्यों , पता नही कई बार रात डेढ़ बजे के आसपास उसे लगता कि दग्ध अग्नि से प्रेत निकलते है और वह उनसे बात करने लगता पर फिर वह कही खो जाता और उसे होश नही रहता कि वह ज़िंदा भी है या नही। इस सबमे उसने अपने हाथ पांव और बाल जला लिए है । चेहरे का एक दाग तो उसके जीवन से बड़ा है जो हर बार उसे श्मशान की याद दिलाता है।

उसे लगा कि उसके सारे काम पूरे हो चुके है, संसार को जो देना था और पाना था वह तो तीन वर्ष पहले ही पा चुका था पर एक और करीबी की मौत ने उसे ये तीन वर्ष और बख्श दिए पर अब उसके सामने कोई भी काम नही , उद्देश्य नही और लक्ष्य नही - लिहाज़ा अब उसे सही समय का ही इंतज़ार करना है बाकी सारे बन्धनों से तो मुक्त हो ही चुका है। परसो एक अंतिम चिठ्ठी लिखनी थी एक मित्र को - वह भी सोच विचारकर लिख दी और फिर बहुत हल्का महसूस किया था। देर तक हंसता रहा था वहशियों की तरह और उस रात और यहां के कुत्ते और शायद अधजली लाशें भी उसे हंसता देखकर डर रही थी।

आज दोपहरी का यह सुकून भरा समय था जब बादल भी काले थे - खूब पानी से भरे हुए और हवाएं भी अपने अंदर कुछ ओस की बूंदें समाएं हुए थी। धरती पर हरियाली की चादर बिछ चुकी थी , इस बियाबान में जीवन के नए अर्थ और क्या हो सकते है इसके लिए देह से परे जाना ही होगा । प्रेम देह से गुजरकर आता है और यही प्रेम मुक्तिकामी भी होता है इसलिए अब देह से गुजरे और पार गए बिना कही कोई सत्व नही है। आज यह तय करने पर कितना हल्का लग रहा है यह बताना मुश्किल था और लगा कि सदियों से जली हुई देहों से निकली आत्माएं ताज़े फूल लेकर उसके स्वागत में खड़ी हो गई हों प्रेमातुर और तत्परता से उसे ले जाने को उद्धत है।

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