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गुजरता साल- पड़ाव दर पड़ाव 2015

गुजरता साल- पड़ाव दर पड़ाव 2015
आज जब बैठकर इस गुजरते हुए साल को देख रहा हूँ तो धड़कनों में एक अजीब सी उहापोह है और साँसों का स्वर अपने आरोह अवरोह के साथ अभी तक ज़िंदा है. सिर्फ तीन दिन बचे है और चौथा सूरज जीवन के उनपचासवें वर्ष की सुबह लाएगा और अड़तालीस वर्ष गुजर चुके होंगे. एक समय था जब मै साल के अंत में लेखा जोखा लिखता था पर अब पिछले बरसों में यह आदत खत्म हो गयी. सारी डायरियां जलाकर ख़ाक कर दी थी पुस्तक मेले से लौट कर आने के बाद फरवरी में. यह एक ऐसा दर्द था जो मैंने एक सद्य प्रसूता की तरह सहा था और फिर जी उठा एक बार फिर से लिखने पढ़ने को और ज़िंदा रहने को. असल में अंतिका से मेरी किताब आई थी "नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं", उस किताब को लेकर कुछ कहना अब बेकार है. एक दिन हम लोग देवास के समीप मांगलिया में बैठे थे शायद बहादुर का ही जन्मदिन मना रहे थे 17 दिसंबर को. लुणावत जी, सुनील चतुर्वेदी, बहादुर, अलकार और मनीष वैद्य के साथ केदार और भगवान् भी थे. अचानक यह सारी मंडली मुझ पर टूट पडी कि सारी कहानियां इकठ्ठी करो और गौरीनाथ को भेज दो छपने को. मेरी कोई तैयारी नहीं थी ना मुझे कोई कसक थी दिल से पर फिर बहुत बातचीत हुई और तर्क कुतर्कों के बीच यह तय हुआ कि किताब जायेगी और तीन दिन की मोहलत में मुझे अपने स्तर पर पांडुलिपि गौरीनाथ को भेजना थी. यह बड़ी कष्टप्रद प्रक्रिया थी. पुराणी कहानियां जो सन 1995-2005 के बीच लिखी थी वो एकाएक सामने आ गयी, पात्र घूमने लगे और चल चित्रों की भाँति विचरने लगे. मुझे अपने ही पात्रों से जूझना पडा, उन लोगों को, परिस्थितयों और देश काल को याद करके सिहर उठा था. कहानी संग्रह की पांडुलिपि तैयार हो गयी थोड़ा जेब में रुपया था सो, भिजवा भी दिया यह जानते हुए भी कि रुपया देकर छपवाने में कोई अर्थ नहीं है, पर मित्रों ने प्रकाशक की मजबूरी बताई, उसकी गरीबी पारिवारिक जिम्मेदारी का जिक्र किया और देवास से चार किताबों का प्रकाशन तय हुआ. सोनल शर्मा और बहादुर की कवितायें, सुनील भाई का उपन्यास और मेरा कहानी संकलन. कुल मिलाकर यह बड़ा निर्णय था और देवास के साहित्यिक इतिहास में शायद पहली बार ही हुआ होगा कि एक साथ चार किताबें दिल्ली से छपे. इसके पूर्व प्रकाश कान्त का उपन्यास और बहादुर का कविता संकलन अंतिका से आ ही गया था पिछले दो तीन बरसों में. 

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पुस्तक मेले में हम पिछले तीन चार बरसों से जा ही रहे है यह लगभग एक शगुन की तरह से वार्षिक तीर्थाटन की तरह था हम चार पांच लोगों के लिए जिसमे बाकायदा हम लोग छुट्टी लेकर जेब से अपना रुपया लगाकर जाते रहे है, इस बार जाने का एक नया आकर्षण था कि हमारी ही किताबें आ रही है. पर दिल्ली पुस्तक मेले का अपना रोना है जहां चार लोग मिलते है प्रकाशक मित्र मिलते है वही इसके दुष्परिणाम ज्यादा हुए मेरे मन पर. अगर आप एक हाल में ही घूम रहे है तो बुरी तरह से थक जाते है, पिंडलियाँ जवाब दे जाती है. समय पास करने के लिए आप यहाँ वहाँ कुर्सी तलाश करते है या अपना सामान रखने के लिए किसी प्रकाशक मित्र का स्टाल. पर कई बार आपके मित्र या जिन संस्थाओं में काम किया हो वहाँ पर नए आये लोग आपको बड़ी बेशर्मी से साफ मना कर देते है, कि यहाँ सामान मत रखो जगह नहीं है. आपको एक प्रकाशक के स्टाल पर बैठे बैठे ऊब भी होने लगती है और आप हसरतों से पानी की ओर देखते हो तो वह भी नसीब नहीं होता. फिर बाहर उठकर जाओ पानी लो और पियो, क्योकि दोस्तों के स्टाल पर जाओ तो यार लोग पानी पिलाने में भी गुरेज करते है क्योकि पानी की बोतल तीस से पचास रूपये तक मिलती है. सवाल पानी का नहीं परन्तु दुःख ये होता था कि जो लोग हमारे शहर में आये थे जिन्हें नाजों से सर आँखों पर बैठाकर रखा, रहने से लेकर शराब और खाने की व्यवस्था की वो लोग इतनी मासूमियत से पलट गए कि संदेह होता था कि ये दोस्त थे या दुश्मन !!! पर फिर भी जाते रहे कि इस बहाने से कवि, कहानीकार, उपन्यासकार और आलोचक मिल जाते है, वर्चुअल दुनिया के फेसबुकिया  दोस्त भी टकरा जाते है, पत्रकार मित्र मिल जाते है पर इन तीन सालों में लोगों को जिस तरह से व्यवहार करते देखा और समझा उससे यह निष्कर्ष निकाला कि यह सिर्फ बेवकूफी के अलावा कुछ नहीं है, दोस्ती और यारी के मायने ग्लोबल दुनिया में बदल गए है, और हम तथाकथित लोगों की, जो कस्बे या छोटे शहरों से आते है, को दोस्ती यारी और रिश्तों के नए पैमाने और परिभाषा गढ़ने की आदत बनाना होगी. एक बार फिर पुस्तक मेला सामने है और इस बार हम कोई नही जा रहे क्योकि मन उचाट है और धंधेबाज प्रकाशकों और दोस्तों से विश्वास उठ चुका है. जिन प्रकाशकों ने पिछली बार फलां किताब की दस हजार प्रतियां बिकवा दूंगा जैसे मासूम वायदे किये थे, वे अब नए लेखकों को पटाने में लगे है और पुराने लेखक पुस्तक मेले में कही किसी कारपेट के नीचे औचक से देख रहे होंगे. 

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