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एषणा - जीवन के कटु अनुभवों से निकला सत्य




मौत ने सबका घर देखा है और जीवन ने भी। ख़ुशी में भले ना जाऊँ कही, पर मौत में जाना मुझे बहुत भाता है क्योंकि शादी - ब्याह, जनेऊ, जन्मदिन या उपलब्धियों की साझा ख़ुशी मनाते हुए लोग बहुत नकली लगते है, एक आवरण ओढ़कर खड़े होते है, खींसे निपोरकर वे उजबक लगते है , अपने वस्त्रों से लेकर चेहरे की भाव भंगिमा भी खरीदकर ले आते हो मानो, इसलिए यह ओढ़ी हुई ख़ुशी और प्रतिस्पर्धा में दूसरे को नीचा दिखाने की नीच प्रवृत्ति छुपी होती है सबमे - हर ख़ुशी के क्षण में, पर मौत में यह सब छल और प्रपंच नही है - लोग बगैर लिपे पुते चेहरों में असलियत के साथ दिख जाते है, वे अपनी असली औकात के साथ आपसे मिलते है, पाँव में स्लीपर डाले लोग अपने दिल की बात सहजता से सब कुछ कह देते है , वे आपके पास आकर बैठ जाते है, पैदल चल देते है और आपकी पीठ पर या आपके गन्दे से हाथों में भी अपना मलिन चेहरा या हाथ धर देते है, उनके आंसू या आपके शरीर के घाम का कोई असर उस समय कही व्योम में चला जाता है। इसलिए मुझे मौत पसन्द है, मौत का साम्राज्य, उसकी विरासत, उसका वैभव और उसका पूरा अपने आप में मुकम्मल होना भाता है। मैं मौत की कामना करता एक याचक हूँ और इसे सदियों से नित्य पा रहा हूँ जबकि ख़ुशी की भीख आजतक नही मिली, इसलिए मौत मेरे लिए एक वरदान है, क्या आपके पास मेरे लिए कोई स्पेस है !

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भीड़ में खोता और क्षीण होकर खत्म होता आदमी

जीवन भी तो घास का ही पुलिंदा है

खोने पाने के बीच का भेद कही का नही छोड़ता

रोज का भटकाव एक दिन चिर शांति ले ही आता है

लौटना एक असुविधा और द्वन्द नही - एक सजग और सहज प्रक्रिया है जो अंततः आपको बहुत आगे ले जाती है - आपके विचार और कल्पनाओं से भी परे


लौटकर हम फिर वही चले जाते है बारम्बार जहां जाने को अभिशप्त होते है क्योंकि जाना और लौटना एक ही है बस दिशा ही बदलना है अपने प्रारब्ध की


लौटने में वह छूटता नही जो आप लेकर चले थे बल्कि वह चला जाता है जो सब आपका ही था


लौटना कितना दुविधाजनक है तब जब कि आप आसानी से लौट सकते है


मिलने में एक उम्र ठहर जाती है और बिछड़ने में जीवन अमर हो जाता है


मिलने का सुख क्षणिक है पर इसकी पीड़ा अनंत है जो धीरे से मार देती है ।


मिलने में अपने अतीत को भुलाकर भविष्य के दुःख को आमंत्रित करने की चेष्टा ही तो मिलने की एक आशा है ।


मिलना - एक लंबी अंधेरी सुरंग से बाहर निकलने की व्याकुलता है


भोर के साथ शुरू हुआ रैला देर रात तक चलता है, एक भीड़ है जो भाग रही है, ठहर कर कोई विचार कर ले, इतना समय नही और बस भागे जा रहे है। घर से, दुनिया से, परिवार और मित्रों से - कही जाकर साध लेना चाहते है और कुछ पा लेना चाहते है , पर कुछ और क्या है किसीको पता नही है। यह भगना और भागना अतिरेक है और जीवन मानो चार पहियों के हवाले कर दिया है और शायद अंतर्मन में कही अंतिम यात्रा का ख़ौफ़ जबरजस्त तरीके से बसा हुआ है, वो बांस की अंतिम सीढ़ी गाहे बगाहे आत्मा के पोर में धंसी हुई है जिस पर चार लोग मरघट पर जाके फूंक आएंगे क्योकि सारे जीवन हम भी तो इस काम में शामिल रहे है। 

भाग लो, अपने आप से भी भाग लेते है और आँख बंद कर सब कुछ मान लेते है, जानने का मोह भंग हो चूका है और बस अब कुछ नही समझना है जब मिलें मौका भाग लो और मैं कहता हूँ यही मुक्ति और प्रारब्ध है।


हम सब एक दूसरे का उपयोग यानि यूज़ करते है

ये नीले आसमान की छाती पर छितरे से काले बादल बिखर गए है ना, यही असली जीवन है जो इस तरह से टुकड़ों टुकड़ों में अक्सर समूचे अक्स पर छा जाते है और उस रोशनी को रोक लेते है- जो कभी छन छनकर आती थी और जीवन में सुवास भर देती थी, यह बादलों के अपने अंदर से उगकर बिखरने का समय है, ढलते सूरज की लालिमा में डूबकर विरोहित होने की बेला है और दूर किसी कोने से शनै शनै निकल रहे चाँद के निकल आने का पूर्व संकेत है कि लड़ने का समय फिर आ गया है और एक लंबी रात में बगैर किसी सहारे के अलस्सुबह होने तक पूरे आसमान का चक्कर लगाते हुए उस पार पहुंचना है !

उन सपनों की व्यथा कहो ना , एक सिरे से सब कुछ तटस्थ होकर सिलसिलेवार सुनना चाहता हूँ !


अपने एकांत में हम कितने वृहद होते है और भीड़ में निर्लज्ज और आत्मकेंद्रित !


दरअसल में सारी लड़ाई हमारी हमसे ही है कि हम कही भी, किसी तरह से भी, कुछ भी करके अपने आप को खपा पा रहे है या नही - अपने बनाये मूल्य, अपने पर लादे गये सिद्धांतों और खुद के बनते बिगड़ते नियमों के तहत और यदि हम देख रहे है कि तमाम दुश्चक्रों और समीकरणों के बावजूद भी एक जागृत सी नींद ले लेते है, सब भूलकर कभी दोस्तों के बीच हंस लेते है, जीवन उत्सवों में राग द्वैष भूलकर उसमें क्षणभर को समाहित हो जाते है, किसी अनजान चेहरे में पहचान खोजने के निहितार्थ मुस्कुरा देते है तो यकीन मानिए अभी प्रकृति ने अपनी कमजोरतम नियमावली के तहत आपको वरण करने के लिए नही चुना है, थोड़ी मोहलत और बख्श दी है, जाईये थोड़ा जीवन से हटकर कुछ कीजिये।

हम सब लोग दौड़ रहे है और दौड़ते हुए अपनी अपनी राह पकड़कर जीवन से त्रस्त होकर मौत को अन्ततः पा लेना चाहते है , दबोचना चाहते है इतना कि उसकी आगोश में जल जाये, दफना दिए जाएं या किसी सर्द कुएं में धकेल दिए जाएं कि जानवर खा सकें इस सुंदर देह को महीनों और बरसों ताकि इस धक्कमपेल, चिकचिक, संत्रास, विरोधाभासों और तनाव से मुक्त हो सकें, और मजेदार यह है कि इस पर हममे से कोई खुलकर बात नही करना चाहता, सब जीवन को मृगतृष्णा या स्थायी छाया मानकर मौत को चकमा देना चाहते है, अपने आपसे झूठ बोलकर स्वांग भर रहे है साँसों का, हम बचना चाहते है कि जीवन अमर हो जाएगा, क्योकि हम सब मौत को मौत कहने और अपनी जीवंत आँखों से उसे देखना नही चाहते। इससे बड़ी क्रूर सच्चाई और शाश्वत झूठ क्या हो सकता है ? 

प्रतिदिन अपने लोगों को, अपने मित्रों को और अपने आप को भी सूर्यास्त के पहले माफ़ कर दो, सबसे माफी मांग लो क्योकि अगला दिन जो भोर में आने वाला है, उसकी तैयारी के लिए भी तो ताकत चाहिए होगी और अगर मन में द्वैष, बैर, तनाव और बदला लेने की प्रवृत्ति बरकरार रही तो अंदर से बह रहा स्नेह का निर्झर झरना सूख जाएगा और फिर जीवन एक झंझावात में घिरकर खत्म हो जाएगा, यह इसलिए कहता हूँ कि बहुत छोटे से जीवन के सफर में हम लोग रहते है और बहुत छोटे से समूह में हम जुड़े हुए है इस विशाल संसार और वृहद् विचारधाराओं के संगम में।

अपने भाव, पीड़ा और गुस्सा छुपाओ, क्योकि समय खतरनाक है और इस सबकी सार्वजनिक अभिव्यक्ति आपको मुसीबत में डाल देगी और आप अपना काम नही कर पाएंगे, जो आप करना चाहते है। चुपचाप लगे रहो, जो हुआ है उस पर राख डालो और आगे बढ़ो।


हम अक्सर दूसरों को खोजते खोजते अपने आप को भी अपने से विलग कर खो देते है

जीवन में कभी ऐसा होता है जब हम सब कुछ छोड़कर कही ऐसी जगह उलझ जाते है जहां से हम बाहर निकलना नहीं चाहते और उसीमे खत्म हो जाना चाहते है, यह होना जीवन में स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी तभी शायद हम प्रारब्ध को प्राप्त कर सकेंगे और कभी उस पार जाने की हिम्मत भी पा सकेंगे।

अचानक जल का उफनता वेग देखकर कैप्टन अपने कक्ष में पहुंचता है कि अपने कक्ष में मौत का सामना किसी वीर की भांति कर सके, दुसरे कमरों में बूढ़े और लाचार लोग पलँग के पाये पकड़े अपनी प्रेयसियों से जकड़े बैठे है, सबके चेहरे पर मौत का तांडव है, भीड़ है कि बढ़ती जा रही है जिस जहाज में छोटी नावें थी और उनका अस्तित्व नही था वे अचानक से इतनी महत्वपूर्ण हो गई है कि उन्हें जतन से सँवारी गयी रस्सियों से किसी नाजुक दुल्हन की तरह से पानी में उतारा जा रहा है, चुन चुनकर लोगों को देखकर और परख कर बिठाया जा रहा है कि उद्दाम और प्रबल वेग से बहे आ रहे तूफानी पानी में मौत को चकमा देकर किसी को तो बचाने का उपक्रम किया जा सके, पर बचा कौन और किसे रहा है यह तय नही है। एक पुलिस है जो बोली लगाकर गोली चलाकर जीवन को काल के गाल से परे धकेलना चाहती है और ठीक वही संगीतकारों की एक मण्डली है जो वायलिन और सेक्सोफोन के मद्धिम किंतु कर्कश स्वरों को भैरवी की तरह से बजाकर पानी के निरंकुश दबाव को कम करना चाहती है, ये जान चुके है कि जीवन की लय अब खत्म हो रही है झपताल और तीन ताल में सारे सप्तक खत्म हो गए है , अनहद अब कभी नही होगा और इस दुनियावी मंच से रागिनियों का सफर बस खत्म होने को ही है ।


आशाएं खत्म हो रही है सब ओर हाहाकार है करुण क्रंदन के आप्त स्वर बिखर रहे है चहूँ ओर , और ऐसे में संतृप्त है तो प्रेम जो गहरे पानी में से भी अपने प्रिय को जकड़न से खींच लेता है, अतल गहराई के बीच से ऊपर ले आता है और नोहा की उस छोटी सी नाव में धकेल देता है जो सृष्टि को बचाने के लिए ले जाई जा रही थी पर प्रेम हार गया, सवाल नियत और सार्थकता का नही था पर इस पूरी लड़ाई में तैरती लाशों के बीच दूर कही से सन्नाटे की आवाज में प्रेम हार गया है और यही असली जीवन है, शाश्वतता है और हारे हुए जीवन का असली भयावह और विक्षप्त रूप है।

हम सब इसी तरह के दानावल में फंसे है, अपने हिस्से के प्रेम को बचाने की भरसक कोशिश करते हुए भी बचा नही पा रहे , जीवन के मन्द पड़ते जा रहे आरोह अवरोह के बीच भौंचक और औचक से होकर देख रहे है , यह समय की विडंबना नही, हमारे मनुष्य होने की त्रासदी है और हम सभ्यता की दौड़ में सर्व श्रेष्ठ होकर भी सबसे ज्यादा असहाय, भीरु और असंयत से खड़े है और घिघियाते हुए कातर दृष्टि से आँखों में उपजे शून्य से व्योम में ताक रहे है। लाशों के अम्बार सदियों से हमारे आसपास तैर रहे है और हम किंकर्तव्य विमूढ़ से खड़े है बाट जोहते किसी की, और यह अंजान मसीहा हमारी संपूर्ण चेतना से गायब है अनादि काल से !

एक छाता हुआ करता था जिसे बन्द करने में अक्सर उंगली दब जाया करती थी, कराहते थे फिर भी बाजार और स्कूल में लेकर चले जाते थे। सम्हालकर रखते बरसों बरस जैसे कोई मीठी याद हो और फिर एक दिन फटता, जर्जर होता और खत्म हो जाता जैसे चली जाती है स्मृतियां और छोड़ जाती है दुर्दिनों में हम सबको। फिर बरसाती आई आधी अधूरी औघड़ सी , पहले सर ढका - जैसे ढक ली जाती है लाज या इज्जत और यह भी अक्सर तेज पानी में भिगो ही देती थी और छूट जाती थी - लाज, हया, संकोच था नही, फिर बरसाती ने स्वरुप बदला - शर्ट अलग , पैजामा अलग - जो दो तरह से बचाती थी पर यह भी एक दिन खत्म हो गयी, दीन हीन बनाकर बरसात सब ले उड़ी !!! अब ना छाते है ना बरसाती और ना बची है हाय ! सकुचाते हुए जीवन स्मृतिविहीन और निर्लज्ज हो गया है और कम्बख्त पानी भी झड़ीनुमा गिरता नही कि पड़ोसी से एक कटोरी शक्कर उधार मांग लाये या दूध के अभाव में काली चाय पीना पड़े या मोहल्ले का पानी घर में घुस आए तुम्हारी तड़फ और बेचैनी की तरह चीरता हुआ सन्न से और एक दिन सुबह उठे हथप्रद से और उलीचते रहे मग्गा दर मग्गा यादों की पोटलियां। यह समय के निस्तार और उचटने की आपाधापी में जीवन का सारा पानी निष्कपट सा होकर बह गया। आज एक छत के नीचे बरसाती के ढेर और ग्लोबल छातों के बीच बैठा अपनी टूटी फूटी नाव के छेद बुरने की जद्दोजहद में लगा हूँ तो वे बारीक कंकर नही मिल रहे जो मुस्कानों के खिलने से बिखर जाते थे और किसी भी नदी की पाल को रोककर खड़े हो जाते थे कि रुको, सुनो और ठहरो और ध्यान से समाधिस्थ होने की कोशिश करो मानो कह रहे हो कि जीवन यही से शुरू होता है, साँसों का कारोबार इन्ही क्षतियों और कश्तियों के बीच से होकर अपने प्रारब्ध को प्राप्त होता है । यही है छाता, बरसाती और जल की वे अनंतिम बूँदें जो सब कुछ स्वाहा कर भी दानावाल में तब्दील नही होती, कोई ला दें मुझे एक रंग बिरंगा छाता, नीली भक्क बरसाती - फिर से एक बार छपाक छपाक कर मटमैले पानी में उतर जाने का बहुत मन है !


जीवन में अगर हम अपने आप के ही हो लिए तो पर्याप्त है, इसके अलावा दो चार दोस्त हो बस बाकी जरूरत नही है भीड़ की, मुरीदों, हकीब और रकीबों की। पर यही सब होने, पाने में कितना खो दिया और अब लगता है विशुद्ध मक्कार, अवसरवादी, धंधेबाज और उपयोग करने वालों से नाता तोड़कर सिमट जाऊँ। शायद मुक्ति यही है और यही है प्रारब्ध भी ।

ज्यादा परिपक्वता कच्ची उम्र में घातक होती है ख़ास करके यदि विरासत में बगैर मख्खी मारे बहुत कुछ मिल जाए, पर घबराने की इतनी जरूरत नही, बहुत जल्दी कलई भी खुल जाती है। परिपक्वता को ओढ़ना और उसे सामंजस्य के साथ बिठाये रखना और फिर अपना ट्यूबवेल जैसा मुंह जो पत्थर ज्यादा पानी कम उंडेलता हो, की गरिमा भी बनाये रखने की कला आनी चाहिए।

कहाँ जाए, जहां जाते है वहाँ अतीत के सिवा कुछ नही, जंगलों में स्पंदन खत्म हो गया, कन्दराओं में कोई भविष्य नही, पानी की तासीर संदेहास्पद है और समुद्र का खारापन, आसमान का हर पल रंग बदलना और फिर भटकाव, इस पल में बेचैनी है, इस ज्वर का कोई इलाज नही , शरीर से ताप के भभकेँ उठते है , उद्दाम होती वेगवती भावनाएं कही से भी ठौर नही पा रही , उफ़ इस सबमे वर्तमान भी तो अतीत बन रहा है हर क्षण - तो फिर कैसा भविष्य सखे यह सोचना बन्द कर देने से शायद हम एक जीवंत जीवन की कल्पना को साकार कर सकें या फिर शायद इन साँसों को अपनी नजरों के बरक्स एक उम्मीद की तरह देख सकें और फिर खो जाए आपा धापी में। आओ हम एक नया जाल बुनें जिसमे हम सब विलोपित हो जाए, सुन रहे हो ना .... कहाँ हो तुम .... यह तुम्हारे लिए ही है !!!

रास्ता बादल, धूप, धूल, धुएँ और धूसरित राहों से होकर ही मिलेगा , छाँह की कल्पना बेमानी है और संगी साथी की भी उम्मीद करना शायद नादानी है। इसलिए उठो, निकलो और चले जाओ, अपने मन की करो, उन्हें छोड़ दो जो अपने तनाव, कुंठा, अवसाद, ईर्ष्या और जलन में अपने को देखने और बूझने के बजाय आठो प्रहर तुम्हें ताकते रहते है और भिनभिनाते रहते है। ये तुच्छ जीव अमीबा स्वरूप है जो अपनी समस्त ऊर्जा एक मात्र उपलब्ध कोशिका से प्राप्त करते है और सिर्फ द्विगुणित होते है, ये सृष्टि के अरबों वर्षों बाद भी बहुकोशीय नही बन सकें तो तुम क्यों इनकी परवाह करते हो। जाओ, चल पड़ो और छोड़ दो सबको पीछे और फिर तुम्हारा अपना वजूद, जमीर और विश्वास साथ है तो फिर क्यों किसी से डरना !

कहते है इंसान ने कोई गलती की थी सो परम शक्ति ने उसके पेट में एक ऐसा गड्ढा डाल दिया जिसे ताउम्र भरते रहो और वो कभी भरेगा नही, बस यही से शरीर को मल मूत्र का बोझ और नित्य कचरा पैदा करने का माध्यम समझा गया । शायद वैराग्य और विरक्ति की शुरुवात यही से हुई होगी , होता भी सही है त्वचा से स्वेद और लगभग हर अंग से गंदगी ही स्रावित होती है, फिर यह मोह माया और वासना क्यों और अंत में जब सब ही इसी हाड मांस के बने है तो फिर ये ऐंठन क्यों, शरीर महत्वपूर्ण है या विचार, मुझे लगता है कि मनुष्य होना ही मूल समस्या है जो प्रकृति के लिए सबसे हानिकारक है।

जीवन में अगर सब कुछ किसी के लिए खो भी दिया तो सब कुछ फिर से पाया जा सकता है बस सिर्फ वह छूट जाएगा जिसे पाने के लिए सब कुछ खो दिया था, और इस सब कुछ में स्वयं को एक बार तो तिरोहित करना ही होगा क्योकि तभी हम पाने और खोने को समझ पाएंगे शेष बचे समय में जीवन के बीच साँसों का तिलस्म भी जान पाएंगे।

जीवन सपनों में रहता था और सपनें किसी दूर आसमान में, इस तरह ना जीवन पूरा होता ना सपनें जमीं पर उतरते और फिर इसी बीच किसी कोने से मौत आ दबोचती हम जीवन और सपनों के बीच अपनी इच्छाएं व्योम में उछालते और सब खत्म हो जाता और कही से छन्न की आवाज भी नही आती।

प्रेम जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर व्योम में किला बनाने की साजिश है जहां आप अपनों से दूर होते है और एक निहायत ही तुच्छ मायावी अपेक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग देते है, होश में आने के बाद बुरी तरह से रीते हुए, सब कुछ खोकर लौटते हुए और अपनी कमजोरियों को छुपाते हुए एक घिघौना संसार रच लेते है जहां सिर्फ और सिर्फ यातना और दण्ड का वृहत्तर साम्राज्य होता है जिसमे आप और लोगों के साथ अपनों को भी बहला-फुसलाकर ले आते है और एक आततायी की तरह से सब कुछ नष्ट कर देते है।


जिस दिन प्रेम से अपेक्षा, भावना, दुस्साहस, इच्छा, नश्वरता, प्यास, संताप, प्रतिबद्धता, समर्पण, शाश्वतता, मौन, याचना और संलग्नता के भाव हट जायेंगे, उस दिन प्रेम का अंत सिर्फ प्रेम ही रहेगा और अपराध का काला कलंक छूट जाएगा।इस प्रेम को सांगोपांग पाने के लिए प्रेम के लिए नया शब्द ईजाद करना होगा क्योकि प्रचलित प्रेम में ये भाव सब यूँ मिले है मानो जीवन और मृत्यु जो सम्पूरक है।


प्रेम में डूबा आदमी मदमस्त, उन्मुक्त और वायवीय हो जाता है और इस तरह से वह भीतर के प्रेम को खत्म करते हुए अपने अंदर एक हैवान को आहिस्ता से जन्म देता है, नित नए उद्यम प्रेम की सम्पूर्णता को प्राप्त करने के लिए करता है और यही कुशलता और हैवानियत उसे अंत में प्रेम से ओत प्रोत कुशल खिलाड़ी बनाती है जो अंत में संसार के सारे कुकर्म उससे प्रेम में करवा लेती है।



जब किसी से डूबकर प्रेम करते है तो अपने सबसे करीबी के साथ लगभग हत्या करने जैसा अपराध करते है और इस तरह हम प्रेम के उन्माद में होकर एक आदतन अपराधी बन जाते है और संसार में अपने श्रेष्ठ प्रेमी होने की दौड़ में अपने को साबित करते हुए हम अंडर वर्ल्ड के सरगना बन जाते है।


प्रेम की ठसक और धमक के बीच सच्चा प्रेम खत्म हो जाता है, एक तनी हुई रस्सी पर चलते हुए भावनाओं का उद्दाम वेग सब खत्म कर देता है - यह प्रेम की ऐसी उत्कंठा होती है जो निर्बाध रूप से क्षणिक विचलन के बीच कब अपराध में बदल जाती है मालूम नही पड़ता और एक प्रेम के आस्वाद में डूब कर हम अपराध की वैतरिणी पार करने लगते है ।


प्रेम में हद से बाहर गया हुआ और पगुराया हुआ शख्स अक्सर एक शातिर, घाघ अपराधी साबित होता है, यह दीगर बात है कि कई लोग इस शातिरपन में अपने को प्रेम में सिद्ध और सफल बताकर बच निकल लेते है पर अपराध बोध तो उन्हें मृत्यु तक सालता ही है।


और प्रेम का एक लंबे सफर और दुःख सुख के बाद अंत में एक सुनियोजित अपराध में बदल जाना ही प्रेम की बहुधा पराकाष्ठा होती है ।

समझौतों में सच्चा सुख समाहित होता है सो सृष्टि के स्वार्थ को शाश्वत रखने के लिए आईये समझौतों की ओर चलें ।

इस पार से उस सत्य को देखना जिसे हम शाश्वत कहते है, मतलब अँधेरे में हवा को पहचान कर रंगों से लबरेज कर देने की कोशिश करना है और शायद इस सबके बीच उन जुगनुओं को दृश्य से ओझल कर देना है जो शायद एक क्षणिक आवेग में उजाला देने आपके पास आ गए थे ।

नौतपा की धूप से गुजरना नौ जन्मों की स्मृतियों से गुजरने जैसा है जो सब कुछ जलाकर राख कर देने पर आमादा है और निश्छल मन पुनः बार बार उन यादों की महीन गठरियों को सहेज लेता है जो किसी कोने से साँसों को ताप देती है और ज़िंदा रहने का माद्दा देती है।

रेल की सीटी, लम्बी ना मिलने वाली पटरियां, चहल पहल, इंतज़ार, सुस्त पड़े उंघते से स्टेशन, अंजान दिशाएँ, दुनिया के सफर में बेटिकिट होने का दर्द, अलसाये से पेड़, जमीन पर पड़ी जर्द पत्तियाँ, दूर चमकता खूंखार सूरज, हवाओं की तलाश में धूल के कण, और इस सबके बीच दूर कोने पर खत्म होते प्लेटफॉर्म पर सिकुड़कर बैठा मैं अपने होने और खोने का अर्थ अपने आप से पूछ रहा हूँ कि प्रश्न क्या है कि कोई उत्तर तलाशें जाएँ !

हम अपने होने को भोगते है, हम भोगने को यथार्थ कहते है, हम यथार्थ को नियति बताते है, हम नियति को प्रारब्ध मानकर संघर्ष करते है, संघर्ष को हम सभ्यता के लिए किये जाने वाला जीवन का युद्धाभ्यास बताते है, युद्ध को शान्ति के लिए जरूरी कहते है, और इस तरह से हम शान्ति को जीवन में धीरे से खत्म कर देते है, फिर सारी उम्र हम अपने लिए आश्रय खोजते है , आंसूओं के समन्दर से गुजरकर हम एक अट्टाहास लगाते है और जीत जाने के गुमान में मृत्यु के सामने बेहद बौने साबित होकर हार जाते है और फिर किसी अनंत यात्रा की ओर चलते हुए किसी व्योम में त्रिशंकु से अपनी ही आत्मा में ययाति खोजते रहते है।

शक के बीच अक्सर हम अपने विश्वास टटोल रहे होते है.


जीवन में सुबह नहीं आती तो शायद धूप से होकर चांदनी में गुजरी रात के तले भोगे हुए दुखस्वप्न हमेशा हममे ज़िंदा रहते और हम उन रास्तों पर चलना शुरू कर देते जो शायद कही नहीं पहुंचते या उन नदियों की मौजों पर सैर करते जिनके गर्भ में त्रासदियों की कीर्चियाँ हमेशा वमन करती रहती है, उन समंदरों में डूब जाते जिनके किनारे ही अक्सर उछल उछलकर हमारा सर्वस्व छीन लेते है या उन हवाओं के रूमानी पहरुएँ हमें उन दिशाओं में उड़ा ले जाते जहां से हम फिर लौटकर कभी ना आते.

सबसे पहले आपको संसार से, फिर समाज और समुदाय से, फिर मित्रों से, फिर बेहद करीबी परिजन जिन्हें आप अपना मानते है- वे भले ना माने और अंत में अपने आप से अपेक्षा छोड़ना होगी तभी अंदर का उद्दाम वेग से उठने वाला ज्वर शांत होगा।
ध्यान से देखिये और अवलोकन करिये संसार, समाज, समुदाय, परिवार जिसमे माता-पिता, भाई - भाभी, बहिन - जीजा, भांजे भतीजे और यहाँ तक कि आपके पुत्र पुत्री, बहू बेटियां भी एक गहरी आशा से देखते और परखते है। जिस क्षण वो आपको किसी उपयोग लायक नही समझते उस समय से आप एक किनारे कर दिए जाते है, निराशा और हताशा के वे ये पल होते है जब बेहद अपमानित तरीके से आप एक ओर एकांत में धकेल दिए जाते है और आप विस्मित होकर यूँ ठगे से महसूस करते है मानो आपको किसी ने डस लिया हो, प्राण निचोड़ लिए हो और एकदम अपने आप में सिमटकर रह जाते है।


ये उपेक्षा की पराकाष्ठा है और सिर्फ और सिर्फ अपेक्षा से उभरी है , इसलिए मैं कहता हूँ तुम भोग लेना सब कुछ - देना मत किसी को कुछ, चाहे माया हो, धन या प्यार का उन्मुक्त संसार, बचाकर रख लेना अपने लिए ताकि जीवन के उत्तरार्ध में जब अपने निविड़ में अकेले हो और सब ओर से लूट पीटकर आये हो तो कम से कम अपनी गठरी को खोलकर देख सको और थोड़ी धास्ति मिलें कि कुछ तो है, अपने अंदर बिखरे सोतों को इकठ्ठा कर लेना और अपने से ही इतना प्यार कर लेना कि कही और से मिलें भी तो सहेजने की जगह ना हो तुम्हारे पास।

यह इसलिए कह रहा हूँ कि अंत में हम सबको यशोधन, यशोधरा, राहुल और सारे वैभव विलास छोड़कर एक समय में बुद्ध हो जाना है और बुद्ध होने का अर्थ है मौन हो जाना, अपने में तिरोहित होते हुए अपने में ही समाहित हो जाना है।

समय है अभी बिछोह कर लो अपनों से क्योकि यही कष्ट के मूल कारण है और अपेक्षा भी छोड़ दो।

हमे बिछड़ना ही था ताकि हम मिल ना सकें, उसी से तो अब तक जीने की ताकत मिली और अब सब चूक रहा है और बिछड़ने का सही अर्थ व्यवहार में परिणित होने का समय आ गया है ताकि बची हुई संभावनाएं भी खत्म हो जाए, उस बिछड़ने में और इस बिछड़ने में कोई फर्क नहीं था और ना होगा, बस यह कि अब सब कुछ खत्म हो जाएगा देह की बासी गंध के साथऔर फिर कभी कोई पूछेगा भी नहीं कभी कि कहाँ है आजकल ? लगेगा भी नहीं कि एक देह थी जिसे मंदिर की तरह पूजा था - जिसे सपनों से ज्यादा संवारा और चाहा था, यदि कोई पूछे तो कह देना कि सब कुछ वायवीय था, विलुप्त हो गया. जो चीजें जीवन से विलोपित हो जाती है उनके बारे में कभी कभी कोई बात नहीं करता और जो ख़त्म हो जाता है उसे याद करने से जुगुप्सा होती है, जीवन की क्षणभंगुरता में यह सब होता है और होना भी चाहिए पर जो छुट गया हो, जो खत्म हो गया हो उसे एक बार में झटके से तोड़कर आगे बढ़ जाना चाहिए इसलिए इस बिछोह के दर्द को - जो सालता रहता है, उसे मुक्ति दे दो, उसे आजाद कर दो और जाने से पहले सारे निशाँ मिटा दो.

जीवन में जब सुबह उठकर आज क्या करना है, कहाँ जाना है, कुछ काम करने हो या सिर्फ एक छोटे से काम को करने के लिए पूरा दिन बच जाता है और इस दिन विशेष को स्मृतियों में दर्ज करने को उस खाते में कोई काम ना हो तो समझ लीजिये कि आपका अंत आ गया है और अब सिर्फ शान्ति से अपना हिसाब समेटना शुरू कर दीजिये मसलन एकाउंट्स, लेन देन, खातो और बीमा में नामांकन और अपनी गठरी के सामान की बाँट, यही अंत है और यही प्रारब्ध।

ये जो जिंदगी है ना किसी पतंग की तरह ऊँचे आसमान में एक कच्चे धागे में उड़कर उलझ गयी है, ना पेंच है ना कोई खिरनी लगाने वाला, हवाओं के साथ उड़ती तो जा रही है, कटना भी है यह भान है इसे पर तब तक कागज का रंग उड़ जाएगा, मांझे का कांच बिखर जाएगा और एक आवारा गर्द के साथ दूर किसी धरती के मद्धम उजियारे में निर्लज्ज कोने में गिरकर खत्म हो जायेगी एक गहरी चुप के साथ और कही शोर भी ना होगा !


After a certain time all relations stinks badly, may be social, friendly, close ones or even blood relations. Better to keep ourselves detach from each of them and live life at own without expecting any thing from any one even with oneself.


हम एक दिन अपने को बचाते हुए मौत के ऐसे आवरण में छुप जाएंगे कि जिससे भी हम डरते थे वह हमसे डर जाएगा उस अवस्था में, आईये जीवन के उस सर्ग की तैयारी करें ताकि हम एक बार में बगैर भय और संकोच के सब कुछ ज्यों का त्यों छोड़कर यूँ गुजर जाए यहां से कि आहट भी ना हो, साँसों का आरोह अवरोह भी सुनाई ना दें और अश्रुओं का मचलता हुआ खिलंदड़पन ऐसे विलोप हो जाए मानो घूमती अवनि पर कोई जन्मा ही ना हो।

जो बीत गयी उसे छोड़ना है
जो सामने है उसे देख रहा हूँ
कल क्या होगा वह मालूम है

अब सवाल यह है कि चलते, हाँफते और दौड़ते समय मिला नही, कही ठहरा नही और इस तरह से लगभग पांच दशकों और बदलती सदी को देख लिया, पानी गुजर चुका है और बहते हुए इस दौर में सब कुछ खत्म हो गया है, देने को कुछ नही, ले भी लूँ किसी से कुछ तो कहाँ रखूंगा, इसलिए तटस्थ और अपरिग्रही हो जाना है , यही प्रारब्ध था और रहेगा, बाकी तो सब सर्वविदित ही है।

थोड़ा अजीब तो था जब देखा कि लगभग 80 की बुजुर्ग महिला अपने साथ एक बच्चे की प्रतिकृति नुमा खिलोना चौबीसों घंटे अपने साथ रखती है और उसके साथ कमोबेश बातें करती रहती है, बावजूद इसके कि उसका अपना एक बेटा भी उसके साथ रहता है, जब पूछा तो पता चला कि यह खिलौना अभी हाल ही में उसने खरीदा है क्योकि उसका पाला हुआ मिट्ठू अभी मर गया, पिंजरे की सलाखों के कारण उसकी गर्दन पर घाव हो गए थे, तीन माह तक यह बुजुर्ग महिला उसके इलाज के ;लिए घूमती रही पानी की तरह रुपया बहाया पर उस मिट्ठू को बचा ना सकीं , गंभीर किस्म का मामला था सदमे में रही और एक दिन यह निर्जीव खिलौना ले आई जो अब वाचाल है और उसके जीवन में शामिल. ध्यान रहें कि यह महिला मप्र शासन के उपक्रम से बड़े पद से सेवानिवृत्त हुई है और सुशिक्षित है.

ये भारत है और ये है संस्कार, सभ्यता, और संस्कृति ........पहले मै भी समझा पागल है फिर आसपास देखा तो लगा कि पागल कौन ???


एक खाली मैदान है, कुछ पेड़ अलसाये से खड़े है, जमीन पर बिखरी पत्तियों का अब अस्तित्व नही है, बहुत छोटी उगती कोंपलें मुरझा रही है, हवा में धूल के कण शिद्दत से मौजूद है, दूर एक वीरान कच्ची सड़क पर कभी कोई सायकिल पर सवार गुजर जाता है तो एहसास होता है कि सारी जद्दोजहद के बाद जीवन अभी भी शेष है - किसी सुस्ताती दोपहर सा जो दो बूँद पानी पीकर चलायमान हो जाता है, इस बीच एक गोरैया कही से कर्कश आवाज करती हुए भिन्नाट से निकलती है , सारा ठहरा हुआ दृश्य एकाएक रोमांचक हो जाता है सूखी पत्तियांझूम उठती है और सूखे दरख्त आसमान की ओर नेह की बूंदों के लिए ताकने लगते है। सारा पतझड़ इन आँखों के किसी कोर से आये आंसूओं में घुलने लगता है और शरीर में आई एक जकड़न कहती है कुछ तो है जो कभी शायद इसी जमीन पर, इसी जीवन में इन्ही साँसों के आरोह- अवरोह में कुछ दे जाएगा और फिर सबसे प्रिय मौत भी तो है जो एक दिन इसी तरह से खत्म होते परिदृश्य में प्यार और सम्मान से आलिंगनबद्ध कर लेगी और मैं दुनिया को एक चुम्बन देते हुए मुस्कुराकर अलविदा कह दूंगा!!!

तुम्हारे लिए ...... सुन रहे हो ना ....... कहाँ हो तुम ...
अचानक वह घर से निकल पड़ा पता नही किस धुन में और शहर की सड़कों गलियों और पहाड़ियों पर चक्कर लगाता रहा , क्या दिमाग में था मालूम नही पर उसे लगा कि वह ऐसा कुछ ढूंढ रहा है जो अप्रतिम हो, विलक्षण हो, उसे पाकर उसके अंदर का उठता हुआ उद्दाम वेग प्रबल होकर शांत हो जाए प्रायः मन्द सा या सुप्त सा। उसे लगा कि ये शहर की गलियाँ कितनी बदल गयी है , कटी घाटी जो एक ओर से कटी थी आज आबाद है, महल का पिछ्ला हिस्सा जीर्ण शीर्ण होकर खत्म होने की कगार पर है, इसी राजवाड़े में उसने घण्टों खड़े रहकर ठाकुर जी के भजन गाये और दिंडी में निकला है, पर वहाँ भी तो उसे चैन नही मिला था, एक जनाज़े के पीछे हो लिया वह आहिस्ते से, रास्ते की तंग गली में लोग रास्ता रोके खड़े थे, जिस आदमी ने जीवन भर संघर्ष किया उसे अपनी अंतिम मंजिल में भी लोगों का ही सामना करना पड़ रहा है !! मौत से किसी को अब फर्क नही पड़ता, एक कौतुक नही एक बेजान सी औपचारिकता है लोगों के लिए, काम वाले दिन छुट्टी और फिर सारा दिन छुपकर चुपके चुपके आंसू बहाना याद है सुनते रहे। उफ़, वह इस जगह आ गया पर पुरसुकून था कि यहां अभी भी शान्ति, करुणा, सहानुभूति और समानुभूति दर्शाने वाले लोग ज़िंदा थे और वे इन लकड़ियों की आग में स्वाहा नही हुए थे, घण्टों बैठा रहा वो हड्डियों को बीनते लोगों को देखकर और फिर एक कोने में खड़ा हो गया आग, जीवन और दर्द के गठजोड़ को देखने। उसे हर हड्डी में अपना प्रतिबिम्ब नजर आ रहा था, आग का दानावल उसे अपनी ओर बढ़ते दिख रहा था और उसे लगा यही तो है वह जिसे पाने की कोशिश में जन्मों से भटक रहा है।

रात एक चीते सी लपकती है, सुस्ता रही देह और नींद के आगोश में पड़ी आत्मा के हर पोर को छूते हुए वह उसे मौत के पालने में लिटाकर दूर कही ले जाना चाहती है पर रात की चांदनी, छितरे बिखरे तारें और अँधेरे में जिंदगी की साँसे सब कुछ पछाड़कर देह को आत्मा में विलीन कर भोर के उजाले तक ले आती है, यही सच है क्योकि जीवन इन सबसे बड़ा होता है।



सबसे मुश्किल क्षणों में सबसे कड़ी परीक्षा होती है, सबसे ज्यादा संयम बरतकर शान्ति से जिंदगी को गुजरते हुए देखना और नियंत्रित भाव से सब कुछ छोड़कर सामान्य बने रहना ही तटस्थता का दूसरा नाम है जो सिर्फ प्रेम के सर्वोच्च स्तर को पाने के बाद ही आती है ।


हम जिस दौड़ में दौड़ रहे है, जहां हम जाना चाहते है वहाँ के लिए निकल पड़े, दौड़ते रहे, क्या फर्क पड़ता है कि हमारेआसपास के लोग क्या कहते है, हमारे दोस्त क्या कहते है हमारे परिजन क्या सोचते है ये वे लोग है जो हमारे साथ चलेंगे तो नहीं पर एक बड़ा रोड़ा जरुर बनाएँगे और नहीं तो खुद ही आड़े आ जायेंगे आज नहीं तो कल, इसलिए इनकी परवाह किये बगैर दौड़ते रहे- चलते रहे - अपने मन की बात सुनते हुए, अपने आपसे जूझते हुए और अपने लक्ष्य की ओर निरंतर ध्यान लगाकर.....

चींटियों का अपना साम्राज्य होता है बस दिक्कत यह है कि तथाकथित विशालकाय हाथियों को दिखाई नही देता चाहे चींटी हो या एक कोशीय अमीबा.

हम जीते हुए जीने का स्वांग कर रहे होते है और हर पल मृत्यु के लिए आशंकित से हर सांस को आख़िरी मानकर लड़ते है जबकि दूर कही नियति मुस्कुराते हुए हमें हर पल डराती है, रुलाती है, पछाड़ती है और कभी एकाध थपकी देकर पुचकारती है और जब हम जीवन में निश्चित होकर कही खो रहे होते है किसी रुपहले पर्दे पर अपनी तस्वीरें बनाते हुए - ठीक उसी समय मौत किसी नेवले सी लम्बी जिव्हा में फुंफकार कर दबोच लेती है और निगल जाती है सारे दिवास्वप्न .

जिंदगी के सभी निर्णय वस्तुतः हम सुविधा, लाभ और अपनी कमजोरियों के संदर्भ में लेते है। कोसते भले ही परिस्थितियों को पर हम अक्सर हम अपनी दारुण स्थितियों का भरपूर मजा भी लेते है. 

जब जान ही लिया खुद को तो फिर बाकी क्या रहा



जीवन में आई खुशियाँ तो तुरन्त काफूर हो जाती है और शेष रह जाता है दर्द , जो अंततोगत्वा जीवन का स्थाई भाव बन जाता है।

वायलिन की धुन उसकी आत्मा के पोर में उतरती जा रही थी और शरीर का एक एक हिस्सा टूटन से जार जार होकर तबले की थाप से बिखर रहा था, वह पूरे शहर में बांसुरी की धुन को, विलंबित ताल की द्रुत को शहर भर खोजता रहा, घुंघरुओं की पदचाप में उसे जिन्दगी गलियों में भटकती मिली, शहर के एकमात्र तालाब की मेड पर उसने शब्दों के कुछ अर्थ खोलते हुए फिर से जिन्दगी के अवरोह और आरोह को बड़ा ख्याल में गाने की नाकाम कोशिश की, परन्तु हर बार की तरह वह गुमनामी के अँधेरे में खोता चला गया. पानी के ऊपर चलते हुए उसे कबीर याद आ रहे थे, उसे याद आयी ठुमरी और फिर बेहद ऊँचे स्वर में फटे बांस नुमा आवाज में उसने दादरा गाना शुरू किया तो लगा कि यह शहर उसे कुछ नहीं दे सकता, एक ताली के लिए वह भटकते हुए उम्र के इस मोड़ पर पहुँच गया है जहां से डग्गा और तबला दोनों मिलकर धिन धिन ताकी धिन के अलावा कुछ और नहीं बजा सकते. और फिर एक लंबा आलाप लेते हुए उसने एक हिचकी ली और शहर के साथ वो सो गया तीन ताल में निबद्ध और फिर जब सुबह लोगों ने शहर को जागते देखा तो उसके सुर फटे हुए थे और वह नीम बेहोशी में सारे वाद्य यंत्रों के बीच चिर निद्रा सो चुका था. शहर की सारी हरी पत्तियाँ सूख चुकी थी, सारे फूल बेशर्म के फूलों में तब्दील हो चुके थे, तालाब का पानी सूर्ख था और नदियाँ अपने मुहाने पर लौट रही थी, आकाश में तबले के सुर गूंजायमान हो रहे थे और हार्मोनियम के स्वर अपनी नियति को परास्त करते हुए काली चार पर अनूठे अंदाज में बज रहे थे. उसकी बंद पडी आँखों से जो संगीत की स्वर लहरियां निकल रही थी वे भयावह थी और शरीर मानो किसी गठरी सा पडा खींचकर तानपूरा हो गया था जिसके तार झंकृत हो चुके थे..........ये काला चाँद आज फिर से अलसुबह अभिशप्त होकर निकल रहा था एक भभकते सूरज के सामने.............जिस प्यार को पाने के लिए वह जीवन भर दर दर भटकता रहा, गिडगिडाता रहा यहाँ वहाँ, वह यकायक सारी मानव जाति ने आज उसके शव पर उंडेल दिया था पर इसमे उसका प्यार और वो शामिल नहीं था जिसे वह खोजने एक लम्बी अनंतिम यात्रा पर निकल चुका था सुरों के साथ.......उफ़ कितना विचित्र समय था उस दिन..........सुन रहे हो, कहाँ हो तुम, तुम्हारे लिए.............



किसी को पोषित करना है तो अन्दर से करो, पूरी जिन्दगी लगा दो उसके लिए ताकि वह उंचा उठता जाए और लगातार आसमान को छूने की कोशिश करता रहे, अपने आसपास से सारा पानी, लवण, नमक और हवा छीन लो और उसकी नाजुक देह में नसे बनकर बह जाओ, खींचते रहो वो सब जो उसे ज़िंदा रखेगा और खुद में भले ही गांठे पड़ जाए, सड जाओ, सूख जाओ, अन्दर ही अन्दर इतने धँसो कि धूप की एक उजली किरण के लिए भी भले तरस जाओ पर जिसके लिए जी रहे हो उसे सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचाने के लिए सब कुछ खत्म कर दो, उलझाते रहो अपने में अपनी ही अविभक्त शाखाओं को तिरस्कृत होने दो, खोदते रहो उस मिट्टी को जहां से पानी और नमक आ सकें परन्तु उस जीवन का सहारा मत छोडो जिसके लिए जी रहे हो क्योकि अक्सर देखा है कि जो जितना अन्दर से धंसा है, मजबूत है और फैला है वही आगे और उंचा उठेगा. एक दिन वही ऊँचाई फिर से अन्दर धंसेगी और तुम्हे आत्मसात कर लेगी. अगर मेरी बात पर विश्वास ना हो तो एक बार उस बरगद के पेड़ को देख लेना जिसकी असंख्य डगालें आसमान को छूती है वही अपनी शाखाओं को फिर से फ़ैली हुई जड़ों को छूने के लिए अपनी शाखाओं को जमीन में निथार देता है और तभी बरगद अमर है, तभी बरगद बरगद है......किसी को पकड़ो तो ऐसे पकड़ो जैसे पकड़ लेती है जड़ और जब तक जड़ में मट्ठा ना डाला जाए तब तक पेड़ खत्म नहीं होता, जड़ बनो शीर्ष नहीं......

सुबह आई तो लगा कि सवेरा हुआ और सवेरा हुआ है तो धुंध भी छटेगी.....और आहिस्ता से कोमल धूप भी कड़ी होती जायेगी।


नदी जब तट बन्ध तोड़ देती है तो लौटती नही, शाख से बिछड़कर पत्ते भी लौटते नही पेड़ के पास, घोंसले से उड़ चुके नन्हें परिंदे फिर नही लौटते पलटकर कभी, समुद्र लौटाता नही गहरे में जाने पर किसी को, हवाएँ पलटकर रुख नही करती मौसमों का, डार पे चला गया मुसाफिर लौट कर नही आता कभी, हर सुबह जो सूरज उग कर आता है वह दोबारा नही लौटता - ना चाँद हर रात वही शीतलता पसारता है, शाम की लालिमा में बनी हुई आकृतियाँ आसमान दोबारा नही उकेरता - ना ही उन रंगों का सम्मिश्रण दोबारा दिखता है क्षितिज पर , क्योकि ये सब बिछड़ना है अपने उदगम् से , अपने आधार से और यह एक शाश्वत विदाई है। विदा होना है तो ऐसे होवो जैसे कि फिर ना मिल सको कभी, बिछड़ो तो ऐसे बिछड़ों कि साँसों के निकल जाने के बाद निष्क्रिय हो जाये देह और टूट जाये सारे कोमल तंतु जो किसी साज के आरोह अवरोह से झंकृत करते रहें। बिछड़ना और विदाई तो चिरस्थाई है बस बिछडो और विदा होते रहो क्योकि यही परम सत्य है।


उम्मीद का टूटना जीवन के एक सोपान से दुसरे पर जाने की शुरुआत है और इस बीच यादें, सुरंगे और दरिया है जो आपको नए सोपान पर फिर तोड़ेंगे मानकर चलिए , पर जब तक आपके पास दृष्टि, विचार और जोखिम लेने का जज़्बा है तब तक आपको कोई हरा नही सकता, हाँ मौत भी एक बार झाँककर आपसे अपना पता पूछेगी शायद आप न्यौता स्वीकार लिए तो फिर मानकर चलिए आप सब कुछ हारकर जीत ही रहे है फिर भी।

हम अपने कालातीत पंखों से 


एक व्योम में झाँक रहे है खाली से

और समय हमारी गिरफ्त से बाहर है

यह समय को विदाई देने की बेला है

और निस्तेज होती देह को विराम.

चले जाओ कही भी, कितनी भी दूर - जहां मन करें, जो करना है कर लो, क्योकि अवसर एक बार ही नियति के द्वार खटखटाता है और यही से फिर लौटना शुरू होता है जब लौटो तो ऐसे लौटो जैसे लौट आते है बिसरे हुए मेघ पानी लेकर, सावन लौट आता है सूखे पेड़ों पर हरी कोपल लेकर, क्षितिज में गए पक्षी लौट आते है अपनी नन्ही सी चोंच में थोड़े से दाने लेकर, फेंके हुए बीज लौट आते है एक छोटा सा पौधा बनकर जो वटवृक्ष बनता है, पानी की अतल गहराई में गया जहाज लौट आता है ढेर सारी यादें लेकर, सूरज लौट आता है घने अन्धकारके बाद हर दिन रोशनी फैलाने, रात लौट आती है हर शाम के बाद शीतलता पसारने को, चाँद सितारें लौट आते है बिना नागा हर रात ताकि चांदनी में सब कुछ उजागर हो सके, व्योम में बिखरकर खुशी लौट आती है एक क्रन्दन के बाद इको के रूप में, लौट आते है बिछड़े मुसाफिर सांझ में अपने ठौर पर एक नए अनुभव और जीने के तरीकों के साथ...लौटना तो है ही पर, लौटो तो ऐसे जैसे निस्तेज शरीर में साँसे लौट आये और फिर खडा हो जाए जीवन मौत को चुनौती देकर एक नए संघर्ष और जिजीविषा के लिए.

एक फूल खिलता है, एक घास का तिनका आहिस्ता से हिलता है, एक मछली पानी में ऊपर नीचे आती है, एक मगरमच्छ पानी में मस्ती कर लेता है, एक शेर भरपूर अंगडाई लेता है, एक पेड़ कब बड़ा हो जाता है मालूम नहीं पड़ता, प्रकृति का सबसे शक्तिशाली सूरज कब उग कर डूब जाता है मालूम नहीं पड़ता, सितारों के झुण्ड उग आते है हर रोज और कभी कोई तारा टूट भी जाता है, धरती सब कुछ सहती है, आसमान सब कुछ सहता है, बादल भरकर फिर खाली हो जाते है, ओंस की बूदें थोड़ी देर तक रहकर गल जाती है, पानी बर्फ बनकर भाप बन जाता है.......पर कही कोई आवाज हम नहीं सुनते - इनमे से कोई शिकायत नहीं करता, कुछ नहीं कहता, कही हल्ला नहीं होता और एक हम है कि एक सांस लेने के उपक्रम में दुनिया भर में शोर मचा देते है, एक सहज बात को कहकर दुनिया में उत्पात मचा देते है, एक अनिवार्य दैनन्दिन प्रक्रिया को करते हुए पूरी दुनिया में छा जाना चाहते है, बस यही दुःख के मूल कारण है.........


एक सुबह है जो रोज आती है, एक सूरज है जो रोज निकलता है अकेला, एक चाँद है जो रोज छा जाता है अँधेरे के खिलाफ अपने तारों के साथ और एक साँसों का अनवरत क्रम है जो रोज चलता रहता है, कुछ सपने है जो रोज भोर में आते है और एक जिन्दगी है जो चौबीसों घंटों हांफती रहती है और पूरी नहीं होती.


भोर के सपनों से आजिज़ आ गया हूँ कमबख्त सपने है या जिंदगी - ना नींद होने देते है, ना जिंदगी को पूरा, बस एक बाईस्कोप की भाँती गुजरते है और सब आधा अधूरा छोड़ कर बिखरा बिखरा सा, पसरा सा, किसी छन्न की आवाज सा छिटक देते है फिर मुस्कुराते यूँ गुम हो जाते है मानो रात कभी जिंदगी में आई ही ना हो दबे पाँव !!!


एक समय और उम्र के बाद के साथ स्वार्थी साथ होते है जो सिर्फ साथ-साथ होने का एहसास तो देते है पर असल में पटरियों के मुताबिक़ कभी ना साथ होने वाले साथ होते है, जैसे गुजरते समय की परछाईयाँ जो असमय ही उम्र के साथ बूढी हो जाती है और दूर से हमे चमकदार लगती है।


साथ होने का कोई अर्थ नही अगर साथ सिर्फ साथ के लिए है तो !!!


भोग और सांसारिक वासनाओं का बवंडर विचित्र है, यह जहां सुख देता है, एक अनंतिम पथ की ओर अग्रसर करता है वही अंदर ही अंदर आपको आहिस्ता से खत्म भी करते जाता है। इसके बीच आने से पुरुषार्थ तो प्रखर होता है, संसार में मनुष्यता की धारा बहती रहती है, एक प्रज्ज्वल ज्योत भी संतुष्टि सा एहसास देती है पर जीवन की संभावनाएं खत्म होती जाती है और इस बवंडर में हम नीचे ऊपर होकर एक अंधी आंधी में उड़ते रहते है जिससे हमारा अस्तित्व क्षण भंगुर हो जाता है और एक दिन हम पता नही किस दिशा में खो जाते है जहाँ से आना मुश्किल ही नही असम्भव हो जाता है और फिर हम काया से परे होकर अनंत में मिल जाते है और इस तरह से संसार से निवृत्त होकर किसी यवनिका के पीछे खड़े होकर मुक्ति का वृन्दगान अलापते है।

जीवन बड़ा है और भव्य है पर मौत से विशाल और सुखद नही है, हम सारी उम्र चलते हुए इस मौत की ओर ही अनचाहे भी खींचते जाते है। दूसरों के शरीर जब खत्म होते है तो हम दुखी होते है, रोते है और अरसे तक उदास रहते है सिर्फ इसलिए कि मौत का ख़ौफ़ और आकर्षण हमारे दिलो दिमाग में बराबर बना रहता है, हम जीते हुए मरते है और मरते मरते जीना चाहते है। हमें जीते हुए मौत का बारम्बार एहसास होता है चौबीसों घण्टे हम मौत को अपने ऊपर हावी पाते है और बरबस सोचते है और मौत की कल्पना करते है और इसीमे जीने भर का स्वांग करते है। हमें बड़ी तैयारी करनी होती है और हर सांस में आते जाते हम डरते है कि ये आख़िरी ना हो और फिर सहज हो जाते है, यह सहजपन ही एक दिन हमें उस अंतिम क्षण पर सांत्वना देता है जब हम निढाल होकर निश्वास हो जाते है। आईये जीवन को इस अंतिम पल से बचाने के लिए विलोपित करते चलें।


दरअसल में हमें ही अपना रास्ता और अंत स्पष्ट रूप से नियोजित करना होगा, विलोपित करना होगा अस्तित्व तब तक हम तिरोहित ही होते रहेंगे और तृष्णा के पीछे दौड़ते रहेंगे। यह एक बड़ा निर्णय है जिसकी तैयारी अभी से इसी क्षण से आरम्भ करना होगी ताकि हम सबसे विरक्त होकर वितृष्णा से भर जाये, हममे वो सब जो जमा है कोमल तंतुओं के रूप में, अवांगर्द के रूप में, और एक समग्र संसार से जुड़े होने के धागे, सब विच्छिन्न हो जाए और अपने आप को विशालतम भव सागर में समा जाने को उत्कण्ठा से भर जाए।


इच्छाओं का कोई छोर नही हम सब जानते है, बस अपने को ही एक सीमा तक सीमित करना होगा, खुद ही तय करना होगा वो अंतिम पथ जहां से सारी गलियां और रास्ते एक अँधेरे मोड़ पर आकर खत्म हो जाते है, उस शाम को खुद ही सूर्यास्त की बेला पर ले जाना होगा जो भोर से लगातार आपके अंदर ज़िंदा थी, एक कड़ा निर्णय लेकर घुसना ही होगा उस खोह में जिसका दूसरा सिरा बन्द है, चलिए अब बहुत हो चुका है , ये सारे संघर्ष अब विराम चाहते है - अब ये साँझ की बेला है और अंत जरूरी है।


और अंत में यदि आपके उद्देश्य पूर्ण हो गए हो और सब काम पूरे तो खारिज हो जाइए और सब कुछ छोड़कर चल पड़िये अनंत की ओर, यही एक यात्रा है जो आप को चिर शान्ति देगी और संसार से विरक्त करेगी।

जितने तेज हम दौड़ रहे है उतने ही पीछे होते जा रहे है जैसे जैसे उम्र तजुर्बों के साथ बढ़ रही है वैसे ही साँसों का सफर शनै शनै कम होता जा रहा है।

रात के ज्यादा गहरा जाने से और काली हो जाने से सुबह उजली होगी यह मानना भी एक औचक की तरह से नियति को मान लेने जैसा है, जोकि शायद दिन दहाड़े सूरज के उजाले में चाँद को ढूँढने जैसा है।

किसी से दुश्मनी निभाते निभाते हम भी दुश्मन की तरह हो जाते है और सारे भेद मिट जाते है और हम खो देते है सब कुछ।

लड़ना असल में एक हारे हुए दुविधाग्रस्त मन का अंतिम हथियार है जो सिर्फ यह दर्शाता है कि टूटे हुए सपनों के किसी कोने से अब सुबह का दैदीप्तमान सूरज नही निकलेगा और खण्डित आस्थाओं के बीच हम सफर के अंत में है - जो आसमान में किसी बाँसुरी के सुरों से बिखर रहे है, में समाहित होकर विलोपित हो जाएंगे एक जवाँ कुसुम के फूल जैसे।

अंतर्द्वन्द दरअसल में अपनी कुंठा और अपरिपक्व मस्तिष्क के बीच उठने वाले ज्वार का समावेश है जो अंततोगत्वा खुद की आत्मा पर बोझ रखते समझोते के मुगालतों के बीच गहरी कुटिल मुस्कान के साथ खत्म होता है।

झील की सतह का पानी कितना भी उछल लें जो उद्दाम वेग समुद्र की लहरों में है वो नदी, झील, कूएँ और तालाब के पानी में कभी नही आ सकता।

दमित इच्छाएं दरअसल में सब कुछ कर लेने के बाद तटस्थता के बीच उपजने वाली सहज प्रवृत्ति है जो अक्सर हम सबके भीतर चाहे अनचाहे मृत्यु पर्यन्त जीवन्त रहती है।

एषणा उदास सन्नाटों के बीच आत्मा की प्रतीक है जबकि अपरिग्रह कुछ ना संचित कर पाने का पहाड़ जैसा दुःख जो सदियों तक याद रखा जाकर आने वाली पीढ़ियों के द्वारा छला जाने वाला संताप है।

‪#‎एषणा‬

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