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“कविता भाषा में मनुष्य होने की तमीज है” - संदर्भ उत्तर शती की कविता : समाज और संवेदना -बहादुर पटेल-


जब हम साहित्य या साहित्य की किसी विधा की बात करते हैं तो हमें उसके इतिहास के साथ साथ समग्रता में उसके विकास की बात भी करनी होगी . यहाँ जब हम उत्तर शती की हिंदी कविता पर बात करते हुए समाज और संवेदना के बरक्स कविता की क्या भूमिका रही और कविता पर क्या प्रभाव पड़े यह भी देखना पड़ेगा . किसी भी विषय पर बात करते समय हम यह तय भलें ही कर दें कि उत्तर शती पर बात करें . लेकिन हमें पीछे भी जाना होगा . देखना होगा कि आखिर यह यात्रा उत्तर शती तक किस तरह आई होगी . तभी हम मुकम्मल समझ विषय के बारे में बना पाएंगे . फिर यह भी है कि हमारा समाज, देश और यह विश्व भी तो उस साहित्य या कला के समानान्तर अपनी दूरी तय करते हैं और एक दूसरे पर प्रभाव भी डालते हैं . कविता की बात करें तो कविता अपने समय का सन्दर्भ होती है . हम उसमें वह समय देख सकते हैं जब उसकी रचना हुई . उस समय का समाज और उसके भीतर की हलचल सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक किसी भी रूप में हो हमें देखने मिलेगी. इसीलिए हर समय की कविता दूसरे समय से अपने को अलग करती है . कविता की इन प्रवृतियों को हम हिंदी साहित्य के इतिहास में कालखंडों के रूप में देखते ही हैं . इसी तरह यदि हम उत्तर शती की कविता पर बात करेंगे तो हम उस समय को भी पकड़ना होगा और उसकी पड़ताल भी करनी होगी.

आज़ादी के चार दशक तक की यात्रा में हम जिस तरह का सपनों भारत बनाना चाह रहे थे . वैसा वह बना तो नहीं था . पर उम्मीद और विकल्प हमारे सामने जरुर थे जिनसे हम गैरबराबरी दूर कर एक खुबसूरत दुनिया और उसके भीतर बेहतर इंसानों को गढ़ने का सपना देख रहे थे . लेकिन हम देखते हैं की उत्तर शती में परिवर्तन जिस तेजी से हुए हमें संभलने का मौका ही नहीं मिला . वैश्विक स्तर जो बदलाव आये जिससे भारत ही नहीं पूरे विश्व में मानवीयता का ह्रास हुआ और साम्राज्यवाद ने अपने पंजे फैलाना शुरू किये . बहरहाल उत्तर शती की कविता को देखने पर हमें तीन खास संदर्भ दिखेंगे.

पहला यह कि सोवियत संघ में साम्यवादी व्यवस्था के एक मॉडल का पतन जिससे एक नए समाज का सपना भंग हुआ . जिसका प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा लेकिन सबसे बड़ा झटका तीसरी दुनिया के विकासशील देशों को लगा . ये सारे देश अपने बनने की भरपूर प्रक्रिया में थे . भारत भी इससे अछूता नहीं रहा . बल्कि हम जिस व्यवस्था का सपना देख रहे थे वह वह भी भरभरा गया . यह उत्तर शती की शुरुआत का समय था . इस समय में जो बदलाव आये वे हमारे वर्तमान समाज को बनाने में नींव की ईंट का काम कर रहे थे . उदारीकरण, आर्थिक सुधारवाद और भूमंडलीकरण की शुरुआत का समय था . इस समय सरकारों ने तेजी से यह कोशिश की कि जो राज्य नियंत्रित हमारे उद्योग थे और उनकी जो व्यवस्था थी उनको खोलने की शुरुआत की . विदेशी पूँजी का निवेश और खासकर विश्व बैंक और विश्व मुद्रा कोष का नियंत्रण और दिशा निर्देशन जिनको मानना शुरू किया . जिससे हमारे हाथ से जो श्रमजीवी वर्ग के लिए एक उम्मीद बन रही थी बेहतर समाज की वह छूट गयी . इन सारे बदलाव से हमारे उस समय की कविता जूझ रही थी और आगाह भी कर रही थी . उस दौर की कविता में हम उस समय को आसानी से पकड़ सकते हैं . यही नहीं उस समय की कविता हमें दूरगामी परिणाम भी बता रही थी जहाँ आज हम खड़े हैं . वे कविताएँ अपने लिखे जाने के पच्चीस साल बाद भी प्रासंगिक है . यही तो करती है कविता अपने समय को तो दर्ज करती ही है बल्कि उनके प्रभाव लम्बे समय तक बने रहते हैं . इस तरह वे अपने समय में तो हस्तक्षेप करती ही हैं साथ ही आने वाले समय में अपना पक्ष रखती है और बदलाव की चेष्टा भी करती है.

दूसरा संदर्भ देखें तो यह समय समाज के ध्रुवीकरण की शुरुआत का समय भी है . भारतीय समाज एकरूप समाज के लिए जाना जाता है . हिंदी की महत्त्वपूर्ण ‘पहल’ पत्रिका तो इस देश को महादेश कहती है और इस महादेश में तो कहा जाता है कि कई समय और कई समाज एक साथ रह रहे हैं . इतने बड़े समावेशी समाज में ध्रुवीकरण खतरनाक होता है जैसे कि हम देखते हैं की उत्तर शती का जो आख़िरी का हिस्सा है वह समाज को अधिक से अधिक ध्रुवीक्रत करने वाला है . इस समावेशी समाज में धर्म, सम्प्रदाय और जातियों के ध्रुवीकरण हो रहे हैं . हिन्दू अधिक हिन्दू हो गया मुसलमान अधिक मुसलमान हो गया . रंग अलग-अलग दिखने लगे हैं . यदि कोई जाति अपनी संस्कृति का निर्वाह करती है तो कोई बुराई नहीं है लेकिन वह दूसरी जाति के विरुद्ध यह क्रियाकलाप करती है यह खतरनाक है . इसी तरह एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के ख़िलाफ़ सिर्फ़ यह दिखाने के लिए कि हमारा धर्म श्रेष्ठ है यह मनुष्यता के लिए घातक है . ध्रुवीकरण की यह प्रवृत्ति मनुष्यता के लिए बहुत घातक है . इस तरह उत्तर शती ही हमारे लिए मनुष्यता का सबसे बड़ा संकट भी लेकर आई जिसमें भारतीय समाज ज्यादा से ज्यादा ध्रुवीक्रत हो गया . इसका सबसे ज्यादा प्रभाव उन समाज पर ज्यादा पड़ा जो हाशिये पर थे और धीरे-धीरे मुख्य धारा में आने का प्रयास कर रहे थे . फलस्वरूप हाशिये के समाज और ज्यादा हाशिये पर चले गए . इससे कविता को बहुत नुकसान पहुंचा क्योंकि कविता बराबरी के समाज के भीतर मनुष्यता और जीवन के पक्ष में खड़ी होती है . मनुष्यता और जीवन पर जो खतरे हैं वे हमारी कविता के भी बड़े खतरे हैं.

तीसरे संदर्भ की बात करें तो यह कि यह समय दो महत्त्वपूर्ण कविता के केन्द्रीय विमर्शों का समय है जिसमें पहला स्त्री की चिंता . क्योंकि स्त्री भी हजारों सालों से अपने अधिकारों से वंचित और दबी कुचली रही . हमारी आधी आबादी हमेशा से शोषित रही और आज भी है . स्त्री के पक्ष में कविता खड़ी हुई बल्कि कविता को ताक़त की तरह स्त्रियों के पक्ष में खड़ा किया गया . उत्तर शती में ज्यादा तादाद में स्त्रियों ने अपना पक्ष रखा . स्त्रियों की और से जो आवाज़ आई वह शोषण के ख़िलाफ़ उनकी अपनी आवाज़ है, इनमे महत्वपूर्ण कात्यायनी, अनामिका, गगन गिल और तेजी ग्रोवर है.  

दूसरा विमर्श दलित की चिंता के रूप में हमारे सामने आ रहा है . दलित और हजारों सालों दबे कुचले लोगों के पक्ष में कविता ने हमेशा अपना काम जिम्मेदारी से किया है . चाहे वह कबीर का समय हो या निराला का समय हो . इसके अंतर्गत बात यह भी उठी कि गैर दलितों की और से उनके शोषण के ख़िलाफ़ कविताएँ आई . उत्तर शती में यह आवाज़ भरपूर ताक़त के साथ मुखर हुई . बल्कि यह हुआ कि खुद दलितों की और से कविताएँ आई और शोषण का पुरजोर विरोध हुआ . जैसा कि मुक्तिबोध ने लेखकीय संवेदना के बारे में कहा कि संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना . दो तरह से संवेदना की अभिव्यक्ति के साधन है . जिसमें दलितों ने खुद अपने भोगे हुए यथार्थ को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त कर अपने प्रतिरोध को मुखर किया . दलितों के साथ-साथ आदिवासियों की आवाज़ खुद उनकी जुबानी उत्तर शती में हम देख रहे हैं . ये सारे संकेत एक नई लड़ाई नए संघर्ष को जन्म दे रहे हैं.

इन केन्द्रीय विमर्शों के साथ-साथ संसार का तेजी से एक ध्रुवीय राजनैतिक बंदोबस्त सबसे खतरनाक है . सोवियत रूस के पतन के बाद परिस्थितियाँ बहुत तेजी से बदली . अमरीका जैसे देश को खुलकर अपनी मनमानी करने का मौका मिला . एक नयी तरह के साम्राज्य का उदय हुआ . इससे कहीं न कहीं और सारे समाजों को भयाक्रांत किया जो कि एक वैकल्पिक समाज की कल्पना करते थे . उत्तर शती की कविताओं में इस साम्राज्यवाद का पुरजोर विरोध दर्ज हुआ. अमेरिका जैसे देशों की इस तरह की अतिवादी और दोहरी राजनीति के ख़िलाफ़ लिखा ही नहीं गया बल्कि इनके ख़िलाफ़ प्रदर्शन भी किये गए . इस तरह की कविताओं और जनगीतों  का जिसमें टूल की तरह इस्तेमाल भी किया गया.

इसी के साथ यह हुआ कि समाज को विकल्पहीन बनाने के षड्यंत्र का समय भी उत्तर शती में शुरू हुआ . यह इस समय का बहुत घातक विचार है . साम्राज्यवाद और पूंजीवाद दोनों की इसमें महती भूमिका रही . जीवन और मनुष्यता को बचाने के लिए जहाँ एक और कविता अपना काम कर रही थी . वहीँ इस विचार ने एक नए समतावादी समाज स्वप्न को ख़त्म करने और वर्गीय समाज बनाने की कोशिश की . यह बार-बार कहा जाने लगा कि विचार का अंत हो गया और इसी तरह से इतिहास का अंत भी हो गया है यह बहुत भ्रांत विचार है . ये सब कहने के पीछे मंशा यह थी कि हमारे लिए अब कोई विकल्प नहीं बचा . एक ही विकल्प बचता है और वह है पूँजीवाद . इसका नुकसान यह हुआ कि तीसरी दुनिया के विकासशील देशों में जहाँ कहीं वैकल्पिक समाज के खड़े होने संभावना बन रही थी वह ख़त्म हो गयी . समाजवादी विचारक किशन पटनायक कहते थे कि ये दुनिया कभी भी विकल्पहीन नहीं हो सकती . तो सवाल यह उठता है कि यह भ्रान्ति कौन फैला रहे हैं . दरअसल ये वही पूंजीवादी और साम्राज्यवादी ताक़तें हैं जो एक इकहरी और विकल्पहीन दुनिया बनाना चाहते हैं . ये तीसरी दुनिया के देशों को अपना क्लोन बनाना चाहते हैं . जबकि विकल्प हमेशा से रहे हैं और रहेंगे इसी से मनुष्य का विकास होता है और होता आया है . हमारी कविता भी इन विकल्पों को बचाने की कविता है बल्कि हमारे सामने कई विकल्प प्रस्तुत करती है ताकि एक अच्छे और सभ्य समाज का निर्माण किया जा सके.

उत्तर शती की कविता तक आते आते हिन्दी कविता अकविता और नई कविता का एक लंबा रास्ता पार कर चुकी थी. चंद्रकांत देवताले, विनोद कुमार शुक्ल जैसे कवि अपनी कविता को एक नई जमीन पर ला चुके थे. उत्तर शती की कविता हमारे समय की सबसे सचेत कविता है. इन कविताओं ने उत्तर शती की चिंताओं को सबसे ज्यादा पकड़ा . इस समय की हिंदी कविताएँ ही नहीं बल्कि भारतीय कविताओं की भी यही चिंता रही है . एक ही समय में भारतीय कविता चाहे वह किसी भी प्रादेशिक या क्षेत्रीय भाषा की क्यों न हो उनकी चिंता भी इसी समय को लेकर रही है . क्योंकि कविता कभी भी अपने समय से विमुख नहीं होती है . हिंदी कविता ने भी यह किया . भारतीय कविताओं ने इस समय को लेकर जो प्रतिरोध दर्ज किया उसका उजला पक्ष यह है कि वैचारिक रूप से इन भाषाओं की कविताओं ने एक दूसरे को समृद्ध भी किया . उत्तर शती के इन पूरे पच्चीस सालों में तेजी से राजनैतिक घटनाक्रम बदले हैं इसी कारण यह बेहद घटना प्रधान समय भी रहा है . इसी के चलते भारत दुनिया के नक़्शे पर तेजी उभरा भी है जिस पर सभी ध्यान देने लगे हैं और हमारी बातें सुनी भी जाने लगी है . इसकी गूंज हिंदी कविता में सुनी जा सकती है . हिंदी कविता उन क्षेत्रों में भी लिखी जा रही है जो भारतीय क्षेत्र नहीं है . राष्ट्रवाणी पत्रिका जो महाराष्ट्र से ही प्रकाशित होती थी जिसमें हिंदी के लेखक बहुतायत में प्रकाशित हुए . मुम्बई से निकलने वाली कई हिंदी पत्रिकाओं में जिसमें धर्मयुग, सबरंग आदि है कोलकाता से वागर्थ जैसी पत्रिका आज भी निकल रही है . तो इस तरह से हम देखते हैं इस समय की चिंता हिंदी कविता के साथ-साथ भारतीय कविता में भी देखी जा रही थी और आज भी देखी जा रही है.

उत्तर शती की कविता की पृष्ठभूमि को देखे तो एक और विशेष बात दिखाई देती है और वह है नक्सल वाद से प्रभावित की गूँज. आलोक धन्वा, वेणुगोपाल, जैसे कवि अपनी कविता में जिस आक्रामक तेवर में दिखाई देते है, वह अपने पूर्ववर्ती धूमिल की कविता की याद दिलाते है. “कविता भाषा में मनुष्य होने की तमीज है” एवं " "कविता ही सिर्फ़ विपक्ष में शेष है" एवं आलोक धन्वा की गोली दागो पोस्टर जैसी कविताएँ एक ख़ास तरह के बदलाव की ओर इंगित करती है. उत्तर शती की कविता को देखें तो हम पाएंगे कि यहाँ विषयों की बहुलता के साथ-साथ कवियों के स्वर भी विविधता लिए हुए हैं . जिसमें हर वर्ण और वर्ग के साथ-साथ विभिन्न पेशों से जुड़े स्त्री-पुरुष अपनी विशिष्टता के साथ अपनी बात या अपने जीवनानुभव कविता में लेकर आये . इससे यह कविता बहुत समृद्ध होकर समग्र कविता है . किसी भी समय में कलाओं में काम कर रहे कलाकारों की चार पीढियां हमेशा सक्रिय रहती है . इस शती में भी उनकी सक्रियता रही और है . और यूँ देखें तो हिंदी कविता के इतिहास और उसके विकास क्रम का इस कविता को यहाँ तक लाने में बड़ा योगदान है . जिसमें तुलसी, कबीर और उसके बाद निराला, महादेवी वर्मा आदि कई नाम तो है ही . जिनकी गूंज हमारे समय की विभिन्न रूपों की कविता में मिलती है . बाद में अकविता के दौर में कविता के बने बनाये स्वरुप में काफी परिवर्तन या प्रयोग किये गए यहाँ तक कि किसी भी तरह से अपनी बात रखी जाये . प्रतिरोध दर्ज किया जाये . उसके बाद कविता ने अपनी पहचान बहुत अलग रूप में बनाई जो आज हमारे सामने समकालीन कविता के रूप में हैं . हमारे पूर्ववर्ती कवियों के प्रतिरोध के स्वर धारदार थे और उन्होंने जोखिम उठाकर कविकर्म किया . इसमें प्रमुख रूप से पंजाबी में पाश थे तो हिंदी में मानबहादुर सिंह जैसे कई कवि हुए हत्याएं हुई . उसके बाद त्रिलोचन, बाबा नागार्जुन, शमशेर, रघुवीर सहाय, धूमिल, मुक्तिबोध जैसे कई कवि हैं जिनकी गूंज बहुत दूर तक जाती है और इस शती की कविता में भी दिखती है . इसके बाद जो पीढ़ी इनके बाद की है और अभी उत्तर शती में भी कविता लिख रही है . वह मार्गदर्शक तो है ही लेकिन अभी हाल ही में लिख रहे ताज़ा या एकदम नए कवि हैं उनके साथ भी हैं और एकदम नए संकट और चिंताओं पर साथ-साथ संघर्ष कर रहे हैं . इस समय की कविता में अपने समय को कहने के लिए कविता की जितनी जोखिम या चुनौतियां हो सकती है सब उठाने की कोशिश की . कई बार इस कारण इस तरह की कविता को कविता होने से भी आलोचकों ने ख़ारिज किया.

उत्तर शती की कविता को जब हम देखते है, तो उसमे राजेश जोशी, लीलाधर मंडलोई, कुमार अम्बुज, देवी प्रसाद मिश्र, बद्रीनारायण, जितेन्द्र श्रीवास्तव इत्यादि जैसे कई महत्वपूर्ण कवियों ने अपनी निजता और सामाजिक सरोकार बहुत गहरे ढंग से एक विशेष प्रकार की यथार्थपरक दृष्टि के साथ अपनी बात कविता में कहने की कोशिश की है. इस शती के अंत अंत तक हमें निशांत, अशोक कुमार पाण्डेय जैसे कवियों ने कविता में इन्ही सरोकारों के निर्वाह का अगला चरण शुरू किया. कविता के संदर्भ में यह कहा जाता रहा है कि कविता हाशिये की विधा है और कविता का समय गया . लेकिन कविता अभी भी केन्द्रीय सच और मनुष्य का सच कहती है . मनुष्य की चिंता को लेकर अभी भी सबसे ज्यादा परेशान विधा है . अभी कविता की संभावनाएँ और कविता इस बदलते हुए समय में जिस तेजी से इस युद्ध के समय में बदल रही है . इसका प्रमाण यह है कि अभी भी कविताओं को लेकर कई विशेषांक पत्रिकाओं के प्रकाशित हो रहे हैं . कविता अपने समय को लेकर अभी भी पूरी तरह से तैयार है . कविता ने अभी हथियार नहीं डाले हैं . जब तक हथियार नहीं डाले हैं तब तक मनुष्य की लड़ाई पर भी हमको उम्मीद बनाकर रखना चाहिए कि अभी भी एक बेहतर मनुष्य की संभावनाएँ अभी भी शेष है . क्योंकि कविता की संभावनाएँ भी अभी शेष है . यह कविता हमें आश्वस्त भी करती है.

(दिनांक 22 सितम्बर 15 को डा जीडी बेन्डाले कन्या महाविद्यालय, जलगांव, महाराष्ट्र में विश्व विद्यालय अनुदान योग, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित ‘राष्ट्रीय हिन्दी परिषद्’ की गोष्ठी में पढ़ा गया पर्चा)

-बहादुर पटेल
12-13, मार्तण्ड बाग़
ताराणी कॉलोनी
देवास (म. प्र.) 455001
मो. – 9827340666




  

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