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7 अप्रैल 15 एक सदमे भरी दोपहर थी जिसका होना या ना होना कोई मायने नही रखता




खाये पीये और अघाये दो व्यक्ति शहर से दूर किसी गाँव के भीतर मिलते है तो गिलहरी ,बंदर और जानवरों के संदर्भ से प्रेम ,दोस्ती और परस्पर सहयोग ,जीवन, मौत, दर्शन और जमीन, पुरखे ,किस्से -कहानियां सब याद आ जाता है जिसमे प्रेम, घृणा ,प्रतिस्पर्धा ,जलन ,कुढ़न और ना दुनिया भर की बातें हो सकती है ।

यह सात अप्रैल की दोपहरी है जिसमे क्षिप्रा नदी के सूखते  किनारे की पगडंडी से गुजरते कटे हुए गेहूं के भूसे और उजाड़ खेत और कही - कही खले में लंबी बालियों से गेहूं के दाने निकालने को धूप में सूखी लंबी उम्बियों को पीटती स्त्रियों के बीच से निकलते हम,  दूर किसी कोने में हार्वेस्टर के आने के बाद दुर्दशा पर आंसू बहाते  जर्जर थ्रेशर - जिसे अब कबाड़ी भी लेना नहीं चाहता, पडा है  और दूसरी ओर उम्मीद की दुनिया और कल की आस में अपने नन्हें से गौने को निहारती गाय, रंभाता गौना जो सांकल छुड़ाकर भाग जाना चाहता है एक उन्मुक्त दुनिया में। 

ये सब साक्षी है और इस सबके बीच वो स्त्री जो ठीक  थी, चार साल पहले कैंसर से ग्रस्त हुई और चल बसी चुपचाप - ना ये सदमा था, ना अप्रत्याशित - मानो हम सब जैसे अपनी क्रूर नियति का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हो। याद आये बुद्ध और एक पूरा जीवन दर्शन। रास्ते में ऊंची अट्टालिकाएं और खत्म होते खेतों के बीच से धन लोलुप सरकार के लिए धन उगाहते चमकदार सीमेंट कांक्रीट के रोड, सड़कों पर दहशत और मौत पसराते वाहन।

उफ़, ये एक सदमे भरी दोपहर थी जिसका होना या ना होना कोई मायने नही रखता। 

तस्वीर ली है Bahadur Patel​  ने और साथ है Satya Patel​.


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जिंदगी की शाम कब ढल जाय कोई नहीं जानता ...

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