Skip to main content

"नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं" पर ताई अलकनंदा साने की टिप्पणी.











मेरी किताब "नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं" पर बड़ी ताई अलकनंदा साने की टिप्पणी. बहुत सहज होकर जिस अपनत्व से ताई ने जो भी लिखा है, वह शिरोधार्य है. मै कोशिश करूंगा कि अपने लेखन में सुधार ला पाऊं. आभार और धन्यवाद 

********************************************************************************************************
प्रिय संदीप, 


मैं इसे अपने वाल पर पोस्ट नहीं कर रही हूँ। आप मुखपृष्ठ के फोटो के साथ मुझे टैग कर दें। मैं फोटो नहीं लगा पाउंगी। आदतन थोड़ा - बहुत कटु लिखा है , पर वह होना चाहिए ऐसा मैं मानती हूँ। अन्यथा न लें।


संदीप नाईक की लेखनी की साक्षी मैं तब से हूँ , जब वे अपनी बैचैनी नई दुनिया में 'पत्र संपादक के नाम' में व्यक्त करते थे। जब उनका ''नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएँ'' यह संग्रह हाथ आया तो पहला विचार यही आया कि उस बेचैनी को एक बड़ा कैनवास मिल गया। इस पुस्तक के शुरू के बीसेक पृष्ठों में जो है, वह कथा की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता किन्तु यह स्फुट लेखन आगे की कथाओं के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है। इन पन्नों को तेजी से पलटते हुए जब हम आगे बढ़ते हैं तो किनारे से मुख्य प्रवाह में आ जाते हैं और लेखक के मनोभावों के साथ डूबते-उतराते हैं। पहली कहानी 'मृत्युलेख' एक तरह का आत्मालाप है, तो 'हँसती हुई माधुरी'' फंतासी से यकायक कटु वास्तविकता की ओर ले जाती है। कुल ग्यारह कहानियाँ हैं, जो पढ़ने के साथ - साथ सोचने को भी मजबूर करती है। इस संग्रह की जो कहानी मुझे सबसे उम्दा लगी वह ''अमेय'' है. वैसे तो सभी कहानियाँ प्रथम पुरुष एक वचन में है और सभी भूतकाल की ओर इंगित करती हैं,पर अमेय शायद इसलिए अधिक अच्छी बन पड़ी है कि उसमें बचपन की स्मृतियाँ हैं और ये स्मृतियाँ सभीको अच्छी लगती है। संदीप भी इससे अछूते नहीं हैं। कहन संजीदा है और इस हद तक संजीदा है कि पाठक को लगता है , सब कुछ लेखक के जीवन में घटित हुआ है। संदीप के पास एक वैचारिक दृष्टिकोण है और वह कहानियों में झलकता है। हँसती हुई माधुरी का एक वाक्य देखिए ---''एक ओर महिलाओं की क्या स्थिति है और दूसरी ओर माधुरी दीक्षित। यकीन मानिए मित्रों मेरे पास ग्लानि और हताशा के सिवा कुछ नहीं बचा.'' बचपन का सटीक वर्णन अमेय में है --''बर्फ की सिल्लियों पर रखी लाश को देखना दहशत कम, कौतुक ज्यादा था।'' बड़े सोचते हैं मृत्यु से बच्चे डरते हैं , पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है। आखिरी कहानी ''सतना को भूले नहीं'' प्रेम कथा है, पर आम प्रेम कथा से अलग और आँख को नम करती है।

संग्रह के विषय अलग-अलग है,पर देश काल और स्थल कस्बाई है। ट्रेन है , हवाई जहाज है,कलकत्ता है,गौहाटी है,परदेस गया युवा है , संदीप नर्मदा किनारे से कितनी ही लहरों की सैर करवा लाते हैं। सीधा -सादा कथ्य है और वैसी ही सीधी - सादी भाषा शैली है। प्रूफ की गलतियाँ नहीं के बराबर है , लेकिन प्रूफ वाचक मराठी से शायद अनभिज्ञ रहा होगा सो 'आबा' आब हो गए हैं और ''गुलाबाई'' गुलाब बाई। गुलाबाई दरअसल संझा जैसा लड़कियों का त्यौहार होता है। मुखपृष्ठ किताब से अलग देखा जाय तो अच्छा है , पर पुस्तक के संदर्भ में अनावश्यक ख़ौफ़ पैदा करता है। विषय वस्तु या शीर्षक के अनुरूप होता तो अधिक आकर्षक लगता। बहरहाल ये सब प्रकाशन में होता रहता है , बावजूद इसके संदीप बधाई के पात्र हैं। वे ऐसा ही लिखते रहें यही शुभकामना।

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही