Skip to main content

होने और मेरे बनने में तीन देवियाँ -चंदू दीदी, शोभना मैडम, और लीला दीदी

शायद कुछ पल ऐसे होते है जब हम गहरी निराशा में होते है और अचानक कही से अपने आ मिलते है, तो सारी उदासी दूर हो जाती है और हम चहक उठते है बच्चों से. लखनऊ में ऐसे ही कुछ विचित्र समय से गुजर रहा हूँ मै इन दिनों. 






                                             (बाए से चंदू दीदी, शोभना मैडम, और लीला दीदी)

अचानक से देवास के बीस बाईस लोग एक साथ आ मिलें वरिष्ठजनों के राष्ट्रीय सम्मलेन में. इनमे मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण थे तीन देवियाँ जिन्होंने मेरे होने में बहुत बड़ा योगदान दिया है. माँ तो पहली गुरु थी, बाद में दादी को अपना आदर्श भी मानता रहा. पर शाला की पहली गुरु शोभना शाह जो गुजराती होने के बाद भी मराठी प्राथमिक विद्यालय में मेरी पहली शिक्षिका बनी और पांचवी तब बोर्ड हुआ करता था, गणित में इन्ही की बदौलत ग्रेस से पास हुआ. आज जब मै इनसे कह रहा था तो बोली भले ही तू गणित में कच्चा था पर आज दुनिया के गणित में तो बड़ा सुलझा हुआ है. इनके तीनों बच्चे मेरे हम उम्र ही थे. दूसरी दो महिलायें है सुश्री लीला राठोड और श्रीमती चन्द्रकला तिवारी यानी चंदू दीदी ये दोनों दीदियों की वजह से मैंने स्काउट में हिस्सेदारी की, रोवर्स में हिस्सेदारी की. जिन्दगी के कम से कम सौ कैम्प इनके साथ किये और जीवन का अनुशासन सीखा.  

ये ना होती तो मै जीवन में कभी राष्ट्रपति पुरस्कार सन १९८२ में ले नहीं पाता और राष्ट्रपति थे स्व. नीलम संजीव रेड्डी से मद्रास में. आज शोभना शाह मैडम से मै करीब पच्चीस बरसों बाद  मिला पर लगा ही नहीं कि हमारे बीच इतना लंबा समय का फासला रह गया था और गंगा में इतना पानी बह गया था. लीला दीदी और चंदू दीदी ने जो स्नेह दिया और देवास से लाई हुई मिठाई खिलाई उसकी मिठास शायद ताउम्र बनी रहेगी. 

आप सब स्वस्थ रहे और खूब खुश रहे यही दुआ मै कर सकता हूँ, आप तीन मेधावी और मेरे जीवन को आकार देने वाली महिलाओं को नमन. एक बात तीनों ने एक स्वर से कही कि "संदीप अब बहुत हो गया घर आ जा बेटा, अपना इलाका और अपने लोग अपने ही होते है और फिर हम है ना मदद करने के लिए, जो तू कहेगा वो हम करेंगे........." इतना विश्वास और कौन कर सकता है आंसू आ गए मेरी आँखों में, आते समय ........

यह सिर्फ निश्चल और मातृत्व भरा स्नेह है, और विश्वास रखिये मै जल्दी ही वापिस आ रहा हूँ.........अपने घर .........मित्रों दुआ करिए कि मै लौट जाऊं वहाँ सब अपने है पराया कोई नहीं......!!!

Comments

Dinesh Dard said…
दादा ! दरअस्ल वो तीनों दीदियों का स्नेह और वात्सल्य है कि उन्होंने आपसे घर लौट आने का इसरार किया। वर्ना, मुझे तो लगता है कि सारी दुनिया में अपने ही लोग हैं, कहीं कोई बेगाना नहीं।

हालाँकि, मैं अंदाज़ा लगा सकता हूँ कि ऐसे मौक़े पर आँखें छलक आना बहुत स्वाभाविक है। और आपने उसका वर्णन भी कुछ इस अंदाज़ में किया कि एकबारगी एहसास हुआ कि भीतर से कुछ उठा तो है, आँखों के रास्ते उमड़ पड़ने के लिए......
Dinesh Dard said…
दादा ! दरअस्ल वो तीनों दीदियों का स्नेह और वात्सल्य है कि उन्होंने आपसे घर लौट आने का इसरार किया। वर्ना, मुझे तो लगता है कि सारी दुनिया में अपने ही लोग हैं, कहीं कोई बेगाना नहीं।

हालाँकि, मैं अंदाज़ा लगा सकता हूँ कि ऐसे मौक़े पर आँखें छलक आना बहुत स्वाभाविक है। और आपने उसका वर्णन भी कुछ इस अंदाज़ में किया कि एकबारगी एहसास हुआ कि भीतर से कुछ उठा तो है, आँखों के रास्ते उमड़ पड़ने के लिए......
Dinesh Dard said…
दादा ! दरअस्ल वो तीनों दीदियों का स्नेह और वात्सल्य है कि उन्होंने आपसे घर लौट आने का इसरार किया। वर्ना, मुझे तो लगता है कि सारी दुनिया में अपने ही लोग हैं, कहीं कोई बेगाना नहीं।

हालाँकि, मैं अंदाज़ा लगा सकता हूँ कि ऐसे मौक़े पर आँखें छलक आना बहुत स्वाभाविक है। और आपने उसका वर्णन भी कुछ इस अंदाज़ में किया कि एकबारगी एहसास हुआ कि भीतर से कुछ उठा तो है, आँखों के रास्ते उमड़ पड़ने के लिए......

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही