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"कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं" - प्रांजल धर

























प्यारे मित्र न्यारे इंसान समर्थ कवि प्रांजल धर को हार्दिक बधाई। प्रतिष्ठित "भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार" मिलने पर मैं अत्यंत खुश हूँ. प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल जी इस बार निर्णायक थे, उनके प्रति विशेष आभार कि उन्होंने उचित निर्णय लिया। प्रांजल के संघर्षों और सामर्थ्य को इस पुरस्कार से आश्वस्ति मिली है. लगातार आते शुभकामना संदेशों से प्रांजल मस्त्त हैं. पिछले २ घंटे से लगातार फोन पर व्यस्त हैं. मुझसे बात करने की फुर्सत नहीं मिल पा रही, यह देखना भी कितनी ख़ुशी देता है, कह नहीं सकता है. बेहद संकोची और आभासी संसार से सायास दूर रहने वाले प्रांजल को इसी तरह और और सम्मान मिले, हम सभी मित्रों की ओर से ऐसी मंगल कामना है. उन्हें बधाई। यह कविता गए साल 'जनसत्ता' में प्रकाशित हुई थी।

इस दफा निर्णायक आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल थे। उनके शब्दों में यह कविता "सचमुच भयानक खबर की कविता है। यह कविता अपने नियंत्रित विन्यास में उस बेबसी को रेखांकित करती है, जो हमारे सामाजिक-राजनैतिक जीवन को ही नहीं, हमारी भाषा और चेतना को भी आच्छादित करती जा रही है।" 

इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब
इसलिए उतना ही देखो, जितना दिखाई दे पहली बार में,
हर दूसरी कोशिश आत्महत्या का सुनहरा आमन्त्रण है
और आत्महत्या कितना बड़ा पाप है, यह सबको नहीं पता,
कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ
टूटे-फूटे शब्दों में ज़रूर बता सकते हैं शायद।

मतदान के अधिकार और राजनीतिक लोकतन्त्र के सँकरे
तंग गलियारों से गुज़रकर स्वतन्त्रता की देवी
आज माफ़ियाओं के सिरहाने बैठ गयी है स्थिरचित्त,
न्याय की देवी तो बहुत पहले से विवश है
आँखों पर गहरे एक रंग की पट्टी को बाँधकर बुरी तरह...

बहरहाल दुनिया के बड़े काम आज अनुमानों पर चलते हैं,
-क्रिकेट की मैच-फिक्सिंग हो या शेयर बाज़ार के सटोरिये
अनुमान निश्चयात्मकता के ठोस दर्शन से हीन होता है
इसीलिए आपने जो सुना, सम्भव है वह बोला ही न गया हो
और आप जो बोलते हैं, उसके सुने जाने की उम्मीद बहुत कम है...

सुरक्षित संवाद वही हैं जो द्वि-अर्थी हों ताकि
बाद में आपसे कहा जा सके कि मेरा तो मतलब यह था ही नहीं
भ्रान्ति और भ्रम के बीच सन्देह की सँकरी लकीरें रेंगती हैं
इसीलिए
सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब !

- प्रांजल धर

Comments

Ritesh Jain said…
दर-बदर जो थे वो दीवारों के मालिक हो गए
मेरे सब दरबान दरबानों के मालिक हो गए

लफ्ज़ गूंगे हो गए, तहरीर अंधी हो चुकी
जितने मुखबिर थे वो अखबारों के मालिक हो गए

लाल सूरज आसमां से घर की छत पर आ गया
जितने थे बेकार सब कारों के मालिक हो गए

देखते ही देखते कितनी दुकानें खुल गईं
बिकने आए थे वो बाज़ारों के मालिक हो गए

सर बक़फ थे तो सरों से हाँथ धोना पड़ गया
सर झुकाए थे वो दस्तारों के मालिक हो गए

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