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बदलना ही होगा वह सब जो सिर्फ और सिर्फ बदलने से ही बदलेगा.........

उसने कहा तो था कि कि वो जंग जीत लेगा - पर धीरे धीरे शाम ढलने लगी, सूरज मद्धम होता गया........कही दूर सडकों पर परछाईयाँ लंबी होती गई और फ़िर वो थक हार कर एक जगह बैठ गया, बहुत सोचा बिचारा, अपने दोस्तों को याद किया, सारे पाप-पुण्यों को याद करता हुआ चुपचाप बैठा रहा और फ़िर उसने अपने चारों ओर एक बार घूम कर देखा, बहुत बारीकी से आने वाली हर आवाज को सुना- महसूसा और फ़िर पाया कि यही समय है एक निर्णय लेने का....अचानक उसे याद आया कि कई कागजात है उसके पास यहाँ-वहाँ और फ़िर त्वरित गति से भागता हुआ अपने दडबे मे गया और खोल दी उसने पोटली और बिखेर दिए वो सब कागज़ जो उसके होने को परिभाषित करते थे और उसकी अस्मिता को इतने सालों से सहेजकर रख रहे थे............बस अब मोह खत्म हो गया था.......हाथों मे एक खाली झोला रखा और चल दिया अपने लक्ष्य की ओर.... और आज उसे किसी की पर्वाह नहीं है, आज उसे किसी का डर नहीं है, आज उसे किसी की नहीं सुननी है, आज उसे किसी माकूल फैसलें पर पहुँचना ही है, ताकि आने वाले समय मे फ़िर कोई इस तरह से हैरान ना हो............ इस तरह से ज़िंदा रहने का कोई मतलब नहीं है कब तक ढोया जाये........बस अब यह खत्म करके एक नई उजास की भोर मे उठना ही होगा, और बदलना ही होगा वह सब जो सिर्फ और सिर्फ बदलने से ही बदलेगा.........

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आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

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मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

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शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही