Skip to main content

यश मालवीय की तीन कविताएं


कहो सदाशिव
कहो सदाशिव कैसे हो!
कितने बदल गये कुछ दिन में
तनिक न पहले जैसे हो
खेत और खलिहान बताओ
कुछ दिल के अरमान बताओ
ऊंची उठती दीवारों के
कितने कच्चे कान बताओ
चुरा रहे मुंह अपने से भी
समझ न आता ऐसे हो
झुर्री–झुर्री गाल हो गये
जैसे बीता साल हो गये
भरी तिजोरी सरपंचों की
तुम कैसे कंगाल हो गये
चुप रहने में अब भी लेकिन
तुम वैसे के वैसे हो
मां तो झुलसी फसल हो गयी
कैसी अपनी नसल हो गयी
फूल गए मुंह दरवाजों के
देहरी से भी ‘टसल’ हो गयी
धंसी आंख सा आंगन दिखता
तुम अब खोटे पैसे हो
भूले गांव गली के किस्से
याद रहे बस अपने हिस्से
धुआं भर गया उस खिड़की से
हवा चली आती थी जिससे
अब भविष्य की भी सोचों क्या
थके हुए निश्चय से हो
घर–आंगन चौपाल सो गये
मीठे जल के कुएं खो गये
टूटे खपरैलों से मिलकर
बादल भी बिन बात रो गये
तुमने युद्ध लड़े हैं केवल
हार गये अपने से हो
चिड़िया जैसी खुशी उड़ गयी
जब अकाल की फांस गड़ गयी
आते–आते पगडंडी पर
उम्मीदों की नहर मुड़ गयी
अब तो तुम अपनी खातिर भी
टूट गये सपने से हो
सुख का ऐसा उठा फेन था
घर का सूरज लालटेन था
लोकगीत घुट गये गले में
अपना स्वर ही तानसेन था
अब दहशत की व्यथा–कथा हो
मन में उगते भय से हो
हम तो सिर्फ नमस्ते हैं
हम भी कितने सस्ते हैं
जब देखो तब हंसते हैं
बात बात पर जी हां जी
उल्टा पढ़ें पहाड़ा भी
पूंछ ध्वजा सी फहराना
बस विनती विनती विनती
सधा सधाया अभिनय है
रटे रटाये रस्ते हैं
हम तो इमला लिखते हैं
जैसा चाहो दिखते हैं
रोज खरीदे जाते हैं
रोज मुफ्त में बिकते हैं
यों जब जब पर्बत होते
हम दलदल में धंसते हैं
मुद्राएं त्योरी वाली
एक सांस-सी सी गाली
हमको तो आदत इसकी
पेट बजायें या ताली
इनके या उनके आगे
हम तो सिर्फ नमस्ते हैं
आश्वासन भूखे को न्यौते
पग पग पर आहत समझौते
दादी मां का पान सुपारी
पिछली पहरी हुआ उधारी
अब घर में हैं सिर्फ सरौते
जीवन किसी मुकदमे जैसा
तारीखों पर हैं तारीखें
चीर गया मन का सन्नाटा
बधिक कहां सुनता है चीखें
काठ मारते बड़े कठौते
घाव हुआ तलवार दुधारी
जनमत सत्ता और जुवारी
आश्वासन भूखे को न्यौते
मरा एक रोटी को कोई
पर तेरही पर महाभोज है
उत्सवजीवी इस समाज का
यह कैसा त्योहार रोज है
कैसी पूजा मान मनौते
उंगली पर गिनता त्योहारी
ले जाएगा धूर्त पुजारी
भक्तजनों के चढ़े चढ़ौते!

Comments

यश मालवीय की तीनो कविताओं में समाज का जीवंत चित्रण दिल में गहरे उतरता है ..कितना कुछ ढोंग छिपा है समाज में लेकिन हम चुपचाप आँख मूंद चलते जाते हैं ..चल रहे हैं बस ....सुन्दर प्रस्तुति हेतु आभार ... आपका ब्लॉग आपके कहे मुताबिक बहुत अच्छा लगा ...
यश मालवीय की तीनो कविताओं में समाज का जीवंत चित्रण दिल में गहरे उतरता है ..कितना कुछ ढोंग छिपा है समाज में लेकिन हम चुपचाप आँख मूंद चलते जाते हैं ..चल रहे हैं बस ....सुन्दर प्रस्तुति हेतु आभार ... आपका ब्लॉग आपके कहे मुताबिक बहुत अच्छा लगा ...

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही