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खूनी शहतीरें और मातम की गहरी आवाजें


कह रही थी तुम ना कुछ..........मुझे सहानुभूति नहीं चाहिए बॉस......जी हाँ, सहानुभूति, आज भी, उस दिन भी और वाट्स अप पर रोज कहती हो तो लगता है युगों से, सदियों से यही कह रही हो पर मै क्या करूँ, लड़ते लड़ते अब भी थका नहीं हूँ और रोज सुबह हर सूर्योदय के साथ एक जद्दोजहद चालू हो जाती है... हर आती-जाती सांस के साथ !!! कोई बहाना नहीं और कोई सार्थकता नहीं चाहिए, बस, अपने होने को बार-बार परिभाषित करता हूँ, शायद इसलिए कि हर बार आईना देखने पर  लगे कि यह मै ही हूँ, यह मेरा ही वजूद है और मै ही हूँ जिसे दो-चार होना है अपने आप से और लड़ना है, जानता हूँ कि यह लड़ाई हारी हुई लड़ाई है, एक ऐसी बाजी जिस पर के सारे मोहरे मात खा चुके है, शह और मात का खेल खत्म, सारे मोहरें अब बंद होकर डिब्बे में बंद है, खूनी शहतीरें और मातम की गहरी आवाजें अंदर से निकालना चाह रही है और जीवन रुक सा गया है, तुम जानती हो यह सब, समझती हो मेरी भाषा, और हर शब्द का अर्थ ???  हर शब्द - जो हजार बार दिल-दिमाग से लड़कर, उँगलियों के पोरों से लिपटता हुआ बेबस सा निकलता है और फ़ैल जाता है एक सूर्ख कागज़ पर या इस फलक पर जहां उसका होना एक अंतिम उदघोषणा होती है कि आज सब कुछ व्यक्त हो जाएगा पर......खैर, तुम नहीं समझोगी इस सब को रहने दो कहने को मेरे पास बहुत कुछ है, उस सबको कहने से क्या होगा, संसार में सबको दुःख होता है और अपना दुःख सबसे बड़ा लगता है, यह मेरी लड़ाई है और अपना सलीब खुद को ही ढोना पडता है ना.....बस लौट जाने दो इस बार हमेशा के लिए......

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आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

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चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही