Skip to main content

नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा XII

निकले तों वो भी जैसे मै निकला था जल्दी और बेहद हडबडी में बस फर्क ये था कि मै एक बड़ी बस में था और वो एक छोटी सी कार में, मेरे साथ यात्रियों का एक बड़ा जत्था था और वो दोनों बिलकुल अकेले, जाहिर है कभी साथ रहने की कसमें खाई होंगी- सो साथ ही थे, मै निपट अकेला और साथ में ढेरों अनजान यात्री जों सिर्फ एक मानवीय मुस्कराहट से एक दूसरे को भरोसे से देख रहे थे, कभी बस कही रुकती तों अपने सामान को पड़ोसी के भरोसे छोडकर उतर जाते और फ़िर लौट आते और नज़रे बचाकर सामान टटोल लेते कि सब ठीक ठाक है ना...........कभी बस आगे, कभी कार आगे........सरकार नामक तंत्र में फंसे हम सब लोग सडकों को कोसते और रोते- धोते अपने निर्धारित गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे. सडकों के गड्ढों और ट्राफिक के दर्द में समझ नहीं आ रहा था कि किसको, कहाँ जाने की ऐसी क्या जल्दी थी कि बस- सब हरेक से आगे निकल जाना चाहते थे और फ़िर कई बार ऐसे क्षण आये पूरी दुर्गम यात्रा में कि  अब गये कि तब गये, पर कुशलता भी कोई चीज होती है यार, सबके भरोसे पर वो बस का चालक फिट ही था और हर बार हर बड़े दचके से उबार लेता था आगे- पीछे या साईड से बस निकालकर, वो यात्रा के उद्देश्य -जिसका मतलब निरंतर आगे बढ़ना होता है, को पूरी पारंगता से निभा रहा था............घाट निकल ही चुका था, राजधानी से बस थोड़ी ही दूर भीमकाय मशीनों और मानव श्रम से बना मंडीदीप आ गया था और सडकों पर बेतरतीब से खड़े वाहन और गप्प-शप्प में लगे लगे लोग दिन की थकान से सुस्ता रहे थे रात गहरा रही थी रात के बारह बज चुके थे और बीडी-सिगरेट, ढाबों के तंदूरों से उठती महक पूरी फिजां में घुली हुई थी. वो रोटी -जिसके लिए सारी लड़ाई हो रही है, सिक-सिक कर तंदुर से उतर कर पेट में जा रही होंगी..........ठीक उसी समय यह छोटी सी मारुती एक बार फ़िर बस से आगे निकली और रोशनी के साये में दूर से आ रहे एक हार्वेस्टर में जा घुसी. हार्वेस्टर- जों हमारी खेती-बाडी का सबसे समृद्ध पैमाना है अब, बस रुक गई ठीक कार से चिपककर.......ब्रेक की चूं की आवाज से सारा वातावरण गूँज उठा और जब तक बस रुकती और हम सब उतर कर उन दोनों अनगिनत जन्मों के साथियों को देखते या खींचकर बाहर करते कार से, तब तक दोनों के प्राण पखेरू उड़ चुके थे, खून का सोता फूट पड़ा था आँखों में भय और जुगुप्सा छा रही थी दोनों के, तन सर्द था और अकड गया था दोनों का, बस स्त्री की आँखे हैरान थी कि जों भरोसा किया था उसने इस नर की कुशलता पर वो कही से दरक गया था, और नर की आँखे तों कही नजर ही नहीं आ रही थी- खून और मांस के लोथड़ों में खो गई थी शायद वो अपने आप से भी शर्मिन्दा रहा होगा- आख़िरी समय में कि आज ये कैसे हो गया. .......वो दो लोग  जो एक बड़े मनुष्य  समाज का हिस्सा थे, जों उन घनी राहों पर अँधेरे में उबड-खाबड रास्तों पर बचकर आ गये, जों कार को लगभग दन्नाते हुए भोपाल पहुँचने की जल्दी में कई बार हमसे आगे रहे, जों जीवन भर साथ रहेने  के लिए बने थे, जों मुश्किल से जीवन के उन्नतीस या तीस बसंत ही देख पाए थे, अभी अभी गुजर गये .........पता नहीं किस-किसको अकेला छोडकर, पता नहीं कहाँ जा रहे थे , किस जल्दी में -इतनी कि वहाँ पहुँचने के पहले ही पहुँच गये अपनी मंजिल और पता नहीं वहाँ पहुंचकर क्या कर लिया होगा.........बस एक झटके से रुकी थी, थोड़ी देर बातें हुई, पुलिस की गाड़ी के सायरन सुनाई दे रहे थे हम सबको भी जल्दी थी, हम सब भी आखिर यात्री ही थे और यात्रा का मतलब है आगे बढ़ते  जाना .......बस बढ़ गये छोड़ आये उन दो जिस्मों को अकेला ..........नहीं- नहीं, साथ- साथ छोड़कर, हम बढ़ गये आगे  ताकि सनद रहे कि मरते वक्त भी वो दोनों साथ थे..........कल रात हुए एक्सीडेंट की एक छोटी सी ना खत्म होने वाली कहानी है यह.....(नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा XII)

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही