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नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा XI

यह एक पतली गली का आख़िरी कोना है और गली यहाँ  से मुडकर खत्म भी हो जाती है और नहीं भी.......पता नहीं ये आगे कहाँ जाती है पर यहाँ आकर एक एहसास होता है सब कुछ खत्म हो गया है दुनिया का लगभग आख़िरी कोना आ गया है और ठीक इसी मुहाने पर एक खम्बे पर एक टिमटिमाती सी ट्यूब लाईट जल रही है इस भयावह अँधेरे में, लगता है दुनिया का सारा उजाला यहाँ तक आते आते खत्म हो गया और अपने एकमात्र खम्बे पर यह जलने को अभिशप्त पता नहीं कब तक दम मारेगी, जीवन के बियाबान में और लगभग खत्म हो चुकी दुनिया में एक मात्र  ट्यूब लाईट पर इस समय सैकड़ों हवाई पतंगे झूम रहे है. यह जानते हुए भी कि बस सिर्फ कुछ क्षण की ज़िंदगी है यहाँ और इसी दीपदिपाते प्रकाशोत्सव में अपनी इहलीला समाप्त कर बैठेंगे पर यह जों झींगुरों की आवाज में मंद मंद प्रकाश में सैकड़ों पतंगे झूम रहे है इनसे क्या कहा जा सकता है, एक छोटे से जीवन में अपनी तमाम इच्छाएं पूरी करके यहाँ आ गये है और बस अब कि तब... मौत से जूझ रहे है, गली के आख़िरी कोने पर दुनिया के सबसे अंतिम छोर पर यह मौत का तांडव और यह तमाशा देखने को मेरे अलावा यहाँ कोई नही है. निर्जन रात्री है आसमान में चाँद पूरा है और वो भी कृष्ण पक्ष का इंतज़ार कर रहा है कि ढले तों जीवन की सम्पूर्णता का एहसास भुगत सके, ऐसा तांडव, ऐसा नाच देखना शायद जीवन का ऐसा सच है जब आपके देखते देखते ही सैकड़ों जीवन एक साथ मौत की भट्टी में झोंक दिए गये और आप बेबस सिर्फ चुपचाप देख ही सकते है. कुछ ना कर पाने की बेबसी और लाचारी ......मनुष्य्तर गुणों के बावजूद और लगातार एक बनने - बिगडने की प्रक्रिया में कैसा हो गया मै......बस सिर्फ टुकुर टुकुर देख ही पाया उस तांडव को और फ़िर लौट आया दुनिया के इस सिरे पर, उस गली के अलभ्य कोने को छोडकर- इस कोने पर जों वृहद है, विशाल है और सारे जगत की सारी गलियों को आपस में जोडकर उलझा देता है ताकि भटकते रहे हम यहाँ से वहाँ, ताकि मौत के उस बियाबान से दूर जोडते-घटाने के क्रम में भूल जाये उस सच को जों अन्तोगत्वा स्वीकार करना ही होगा-जब कोई नहीं होगा, कही नहीं होगा, और हम सिर्फ अकेले लिपट जायेंगे उस खम्बे से जों बगैर किसी प्रकाश के खडा होगा- ना किसी जमीन पर ना किसी सहारे के, और उसका छोर जुडा होगा उस लोक में जहाँ कोई गलियाँ नहीं है, ना अंत ना शुरुआत, ना पुकारने वाला ना कोसने वाला, ना कहने वाला ना सुनने वाला, ना ओर- ना छोर, बस एक यात्रा, एक पतंगे की एकल यात्रा, एक अनंतिम की ओर, और एक अनिष्ट की ओर..(नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा XI)

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हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

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