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"तुम्हारा इंतज़ार"- मोहन कुमार डहेरिया



तुम नहीं जानती
कहां -कहां किया मैंने तुम्हारा इंतज़ार

मस्तिष्क में उठते संशयों तथा द्वंद्वों के मकड़जाल के अंदर
धैर्य के एक बेहद संकरे दर्रे में
दहशत की तोप के मुहाने पर
कीचड़ और काई से भरी प्रायश्चित की रपटीली ढलान पर
बनाते हुए बमुश्किल संतुलन
मैंने किया तुम्हारा इंतज़ार

उन दिनों जब
जीवन की एकरसता से ऊब रहे थे लोग
बदल रहे थे बहुत तेजी से शब्दों तथा चीज़ों के अर्थ
कोई बादलों के पीछे बने
फूलों के मंडप में कर रहा था किसी का इंतज़ार
तो कोई
समुद्र के अंदर मछलियों की रंग- बिरंगी दुनिया के बीच

तुम नहीं जानती
कामनाओं के एक सीले हुए पटाखे के भीतर
आशंकाओं की हिलती हुई दीवार से टिकाकर पीठ
इतिहास की प्रेमगाथाओं के मलबे के नीचे दबकर
मैंने किया तुम्हारा इंतज़ार

मैं जानता था
जर्जर हो चुकी थी तुम्हारे प्रेम की लौ
सूखे पीले पत्तों के शोर से भरा अब मेरे जीवन का भी नेपथ्य
एक छोटी सी गांठ की तरह था मेरे ज़िस्म के अंदर जो तुम्हारा प्रेम
बदल चुका था एक बड़े टृयूमर में
फेंकता मेरे शरीर के खून के अंदर रेशे नए
फिर भी बुझे हुए चिराग से निकलते
अंधेरे की एक प्रखर किरण के सहारे
मैंने किया तुम्हारा इंतज़ार।

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