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नर्मदा के कई शहरों में नदी के किनारे बैठकर नदी से बतियाते हुए- नर्मदे -हर, हर, हर...................

१. अमरकंटक

हरे पेड़ों के झुरमुट
घनी लंबी छायादार
सडकों से
आने वाले श्रद्धालु एकत्रित है
तुम्हारे उदगम पर
नदी
जहां से निकलती है
बहती है संस्कृति
पीढ़ी दर पीढ़ी
शंख, ढोल, और घंटियों
की गूँज से आवाज़
गगन तक गूंजती है
नर्मदे हर, हर, हर..............

२. जबलपुर 

ऊँची चट्टानों को क्या मिला,
कठोर हो गयी और दर्शनीय भी,
तुम्हे आगे बढ़ने को स्थान दिया
सारा शहर भेडाघाट जैसा कठोर
और धुंआधार जैसा हो गया है
संस्कृति और सभ्यता बदल रही है
परसाई भी नहीं अब !
नदी तुम आगे बढती रहो
संगमरमर तो पुनः तराश लिया जाएगा,
नदी तुम बढती रहो,
सबको कठोर बनाकर ............
नदी  का काम है बहना
कठोरतम  क्षणों में ही फ़िर गूंजेंगे
नर्मदे हर, हर, हर...............

३. होशंगाबाद

कांजी  लगे घाटों के
शहर में हलचल थी
लोग फिसलते थे
आंसू बहाते थे
रेत........
सारे  खारेपन को सोख लेती है
नदी किनारे का यह शहर
झोलों में बंद परिवर्तनों का साक्षी रहा है
पानी में वाहन चलते है
और सडकों पर नाव..........
क्यों ?
नदी  को किसने
जाना, बूझा और समझा है,
क्या करोगे सवाल पूछकर,
उत्तर कोई नहीं देता
नदी किनारे बसे शहर में
क्यों निराश, उदास, बेबस और हताश है लोग
चीखते है
नर्मदे हर, हर, हर.............

४. नेमावर

प्रदक्षिणा करते लोग
धर्मशाला और अखाड़ों में
गांजा, भांग के बीच
पाप-पुण्य तलाश रहे है
इस बीच गाँव करवट ले रहा है
हण्डिया का पुल और इसके
नीचे झोपड़ी से शिवपुत्र* ने
कबीर की निर्गुण धारा बहाई,
यमन, कल्याण और मालकौंस गाकर
नदी  के बहाव में भैरवी
के सूर बिछा दिए,
गाँव बदल रहा है- कस्बे और फ़िर शहर में
नदी संस्कृति नहीं साधन बन रही है
फ़िर क्यों पुनः..........
नर्मदे हर, हर, हर...................
(* शिवपुत्र  - पंडित कुमार गन्धर्व  के मेधावी पुत्र मुकुल शिवपुत्र जो संगीत की साधना में बरसों से नेमावर में नर्मदा के घाट पर रह रहे है )
५. महेश्वर 

कितनी लंबी दूरी चल चुकी हो
माता अहिल्या के घाट से
माता के शहर की प्यास बुझा रही हो
देवास की भी प्यास अतृप्त है.
सुना है भोपाल भी इसी क्रम में आ गया है........
लोग बेचैन है तुम्हारे लिए नर्मदा
बाजबहादुर ने मांडव में
रूपमती को नर्मदा दिखा दी थी एक पतली महीन रेखा के रूप में
खलघाट के पुल से
गुजरती क्यों सोचती हो
मंडलेश्वर, महेश्वर में क्यों
विचारती हो कि
जर, जमीन, जोरू, और सत्ता
होने के मायने भी
नदी का ही रूप है
यदि हाँ तो क्यो सुनती हो,
नर्मदे हर, हर, हर.............

६. नदी के बाहर 

कृशकाय सी पडी मेधा पाटकर
अतीत हो चुके बाबा आमटे
नदी के साथ बह चुके आशीष मंडलोई
और उन सब लोगों को अब कोई फर्क नहीं  पडता
मेरे शहरों से, कस्बों और गांवों से
वे लगे है दूरियां पाटने में
रैली, संघर्ष, आंदोलन,
सेठ, साहूकार, किसान, विश्व बेंक, सरकार, नेता,
पक्ष- विपक्ष, एनजीओ और समूह
सब लगे है, जुड़े है, टूटे है बारम्बार,
और  चीख रहे है अभी भी,
हर पल, हर दिन, हर जगह
नर्मदे  हर, हर, हर..............


संदीप नाईक



Comments

बहुत अच्छी कवितायें संदीप भाई...आपने सच में चौंकाया. हम तो कहानी के इंतज़ार में थे...लेकिन ये कवितायें तो गजब हैं!

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