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मेरे हाथ तुम्हारे हाथों से जुड़कर- अच्युतानंद मिश्र



 
अच्युतानंद मिश्र युवा कवि ,आलोचक. सभी शीर्षस्थ पत्रिकाओं में कविताएं व आलोचनात्मक गद्य प्रकाशित. आलोचना पुस्तक ‘नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता’ संवेद फाऊंडेशन से तथा चिनुआ अचेबे के उपन्यास ‘Arrow of God’ का ‘देवता का बाण’ शीर्षक से हिंदी अनुवाद हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित. प्रेमचंद के प्रतिनिधि गद्यों का ‘प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति’ शीर्षक से संपादन. जन्म 27 फरवरी 1981 (बोकारो). 

मैं इसलिए लिख रहा हूँ 
                                            
में इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कविता
कि मेरे हाथ काट दिए जायें
मैं इसलिए लिख रहा हूँ
कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथों से जुड़कर
उन हाथों को रोकें
जो इन्हें काटना चाहते हैं

अब और था
वह जब ‘अ’ के साथ था
तो ‘ब’ के विरोध में था
जब वह ‘ब’ के साथ था
तो ‘अ’ के विरोध में था
फिर ऐसा हुआ की
‘अ’ और ‘ब’ मिल गए
अब ?
वह रह गया
बस था ।


लड़के जवान हो गए

और लड़के जवान हो गए
वक्त की पीठ पर चढ़ते
लुढकते फिसलते
लड़के जवान हो गए

उदास मटमैला फीका शहर
तेज रौशनी के बिजली के खम्भे
जिनमे बरसों पहले बल्ब फूट चुका है
अँधेरे में सिर झुकाए खड़े जैसे
कोई बूढा बाप जवान बेटी के सामने
उसी शहर में देखते देखते 
लड़के जवान हो गए

लड़के जिन्होंने किताबें
पढ़ी नहीं सिर्फ बेचीं
एक जौहरी की तरह
हर किताब को उसके वजन से परखा
गली गली घूमकर आइसक्रीम बेचीं
चाट पापड़ी बेचीं
जिसका स्वाद उनके बचपन की उदासी में
कभी घुल नहीं सका
वे ही लड़के जवान हो गए

एकदम अचूक निशाना उनका
वे बिना किसी गलती के 
चौथी मंजिल की बाल्कोनी में अखबार डालते
पैदा होते ही सीख लिया जीना
सावधानी से
हर वक्त रहे  एकदम चौकन्ने
कि कोई मौका छूट न जाये
कि टूट न जाये 
कांच का कोई खिलौना बेचते हुए
और गवानी पड़े दिहाड़ी
वे लड़के जवान हो गए

बेधड़क पार की सड़कें
जरा देर को भी नहीं सोचा
कि इस या उस गाड़ी से टकरा जाएँ
तो फिर क्या हो ?
जब भी किसी गाड़ीवाले ने मारी टक्कर
चीखते हुए वसूला अस्पताल का खर्च
जिससे बाद में पिता के लिए
दवा खरीदते हुए कभी नहीं
सोचा चोट की बाबत
वे लड़के जवान हो गए

अमीरी के ख़्वाब में डूबे
अधजली सिगरेट और बीडियां फूंकतें
अमिताभ बच्चन की कहानियां सुनातें
सुरती फांकते और लड़कियों को देख
फ़िल्मी गीत गाते
लड़के जवान हो गए

एक दिन नकली जुलूस के लिए
शोर लगाते लड़के
जब सचमुच का भूख भूख चिल्लाने लगे
तो पुलिस ने दना-दन बरसाईं गोलियाँ
और जवान हो रहे लड़के
पुलिस की गोलियों का शिकार हुए

पुलिस ने कहा वे खूंखार थे
नक्सली थे तस्कर थे 
अपराधी थे पॉकेटमार थे
स्मैकिये थे नशेड़ी थे

माँ बाप ने कहा
वे हमारी आँख थे वे हमारे हाथ थे
किसी ने यह नहीं कहा वे भूखे
और जवान हो गए थे 

बूढ़े हो रहे देश में
इस तरह मारे गए जवान लड़के


ढेपा 

रात को
पुरानी कमीज के धागों की तरह
उघड़ता रहता है जिस्‍म
छोटुआ का

छोटुआ पहाड़ से नीचे गिरा हुआ
पत्‍थर नहीं
बरसात में मिटटी के ढेर से बना
एक भुरभुरा ढेपा है
पूरी रात अकड़ती रहती है उसकी देह
और बरसाती मेढक की तरह
छटपटाता रहता है वह

मुँह अंधेरे जब छोटुआ बड़े-बड़े तसलों पर
पत्‍थर घिस रहा होता है
तो वह इन अजन्‍मे शब्‍दों से
एक नयी भाषा गढ़ रहा होता है
और रेत के कणों से शब्‍द झड़ते हुए
धीरे-धीरे बहने लगते हैं

नींद स्‍वप्‍न और जागरण के त्रिकोण को पार कर
एक गहरी बोझिल सुबह में
प्रवेश करता है छो‍टुआ
बंद दरवाजों की छिटकलियों में
दूध की बोतलें लटकाता छोटुआ
दरवाजे के भीतर की मनुष्‍यता से बाहर आ जाता है
पसीने में डूबती उसकी बुश्‍शर्ट
सूरज के इरादों को आंखें तरेरने लगती हैं

और तभी छोटुआ
अनमनस्‍क सा उन बच्‍चों को देखता है
जो पीठ पर बस्‍ता लादे चले जा रहे हैं

क्‍या दूध की बोतलें,अखबार के बंडल
सब्‍जी की ठेली ही
उसकी किताबें हैं...
दूध की खाली परातें
जूठे प्‍लेट, चाय की प्‍यालियां ही
उसकी कापियां हैं...
साबुन और मिट्टी से
कौन सी वर्णमाला उकेर रहा है छोटुआ ?

तुम्‍हारी जाति क्‍या है छोटुआ?
रंग काला क्‍यों है तुम्‍हारा?
कमीज फटी क्‍यों है?
तुम्‍हारा बाप इतना पीता क्‍यों है?
तुमने अपनी कल की कमाई
पतंग और कंचे खरीदने में क्‍यों गंवा दी?
गांव में तुम्‍हारी माँ,बहन और छोटा भाई
और मां की छाती से चिपटा नन्‍हका
और जीने से उब चुकी दादी
तुम्‍हारी बाट क्‍यों जोहते हैं?...
क्‍या तुम बीमार नहीं पड़ते
क्‍या तुम स्‍कूल नहीं जाते
तुम एक बैल की तरह क्‍यों होते जा रहे हो
छोटुआ?

बरतन धोता हुआ छोटुआ बुदबुदाता है
शायद खुद को कोई किस्‍सा सुनाता होगा
नदी और पहाड़ और जंगल के
जहां न दूध की बोतलें जाती हैं
न अखबार के बंडल
वहां हर पेड़ पर फल है
और हर नदी में साफ जल
और तभी मालिक का लड़का
छोटुआ की पीठ पर एक धौल जमाता है –
“साला ई त बिना पिए ही टुन्‍न है
ई एतवे गो छोड़ा अपना बापो के पिछुआ देलकै
मरेगा साला हरामखोर
खा-खा कर भैंसा होता जा रहा है
और खटने के नाम पर
माँ और दादी याद आती है स्‍साले को”

रेत की तरह ढहकर
नहीं टूटता है छोटुआ
छोटुआ आकाश में कुछ टूंगता भी नहीं
न माँ को याद करता है न बहन को
बाप तो बस दारू पीकर पीटता था

छोटुआ की पैंट फट गई है
छोटुआ की नाक बहती रहती है
छोटुआ की आंख में अजीब सी नीरसता है
क्‍या छोटुआ सचमुच आदमी है
आदमी का ही बच्‍चा है छोटुआ क्या ?
क्‍या है छोटुआ?

पर
पहाड़ से लुढकता पत्‍थर नहीं है छोटुआ
बरसात के बाद
मिट्टी के ढेर से बना ढेपा है 
छोटुआ धीरे-धीरे सख्‍त हो रहा है
बरसात के बाद जैसे मिट्टी के ढेपे
सख्‍त होते जाते हैं
और कभी तो इतने सख्त कि
पैर में लग जाये तो
खून  निकाल  ही दे



आखिर कब तक बची रहेगी पृथ्वी

वे बचायेंगे पृथ्वी को
जी -२० के सम्मलेन में
चिंतित उनकी आँखें
उनकी आँखों में डूबती पृथ्वी

नष्ट हो रहा है पृथ्वी का पर्यावरण
पिघल रही है बर्फ 
और डूब रही है पृथ्वी
वे चिंतित हैं पृथ्वी कि बाबत
जी -२० के सम्मलेन में

पृथ्वी का यह बढ़ता तापमान
रात का यह समय
और न्योन लाइट की
रौशनी में जगमगाता हॉल
हॉल में दमकते उनके चेहरे
और उनके चेहरे से टपकती चिंताएं
और चिंताओं में डूबती पृथ्वी !

क्या पृथ्वी का डूबना बच रहा है
जी -२० के इस सम्मलेन में ?
कौन सी पृथ्वी बचायेंगे वो
वो जो ग्लोब सरीखी रखी है
जी -२० के इस सम्मलेन में !
क्या प्लास्टिक की वह पृथ्वी
डूब जायेगी ?

डूबते किसान को कुछ भी नहीं पता
डूबती पृथ्वी के बारे में
जी-२० के सम्मलेन को वह नहीं जानता
उसे पता है हल के फाल और मूठ का
जो धरती की छाती तक जाती है
जहाँ वह बीज बोता है
और महीनों वर्षों सदियों 
सींचता है अपने पसीने से
ताकि बची रहे पृथ्वी

बाँध टूट गया है
किसी भी वक्त डूब सकता है गांव
लहलहाती फसल डूब जायेगी
डूबता किसान डूबती धरती के बारे में सोचता है
जी -२० की तरह नहीं 
किसान की तरह 
अपने निर्जन अंधकार में

यह बारह का वक्त है
जी-२० का सम्मलेन खत्म हो रहा है
सुबह अख़बारों में छपेंगी उनकी चिंताएं
वे एक दूसरे का अभिवादन करते हैं
और रात के स्वर्णिम होने की शुभकामनाएँ देते हैं

नदी के शोर के बीच
टूटता है बांध

किसान के सब्र का
उसकी आँखों के आगे नाचते हैं
उसके भूखे बिलखते बच्चे
दिखती है देनदार की वासनामयी आँखें
उसकी बीबी को घूरते 

एक झटके से खोलता है
वह डी.डी.टी का ढक्कन !

सुबह के अखबार पटे पड़ें है
सफल जी-२० के सम्मलेन की ख़बरों से
डूबते गांव में कोलाहल है
किसान की लाश जलायी नहीं जा सकेगी
वह उन फसलों के साथ
बह जायेगी जी-२० के सम्मलेन के पार
समुद्र में !

आखिर कब तक
बची रहेगी पृथ्वी ?

संपर्क-277,पहला तल,पॉकेट-1 सेक्टर-14. द्वारका, नई  दिल्ली- 110075.                               मो. -             09213166256       ; ईमेल anmishra27@gmail.com  


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