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अपनी तो अपने से अनबन ठनी हुई है
जाने कबसे! कह सकना है मुश्किल थोड़ा-
बिना लगाम नहीं सधता है जैसे घोड़ा।
खाली तर्कश, पर प्रत्यंचा तनी हुई है।

घर के घर में विकट महाभारत की आंधी-
अपने ही कुल देव, देवता लगे हुए हैं
लड़वाने में! धर्म चाश्नी में कर्मों की पगे हुए हैं।
कर्ण इधर हैं उधर हवा अर्जुन ने बांधी!

अपने से अपना विश्वास उठा क्यों जाता-
धीमे-धीमे जली जा रही क्यों मनसाई?
मिलता नहीं एक से दूजा भाई भाई-
चूल्हे का चौके से रहा नहीं अब नाता।

इनके हाथ लिए तो उनके हाथों पाँचे
बदल रहे हैं क्रमशः अब ढाँचे-दर-ढाँचे
-नईम

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आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

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