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पर्दा, जर्दा और नामर्दा बनाम भोपाल

कल सारा दिन भोपाल में था काम काम, अपने मोबाईल नोकिया हेंडसेट का सॉफ्टवेर अपडेट करवाया, शाम को कुछ दोस्तों से मिला- सारिका, अविनाश, सौरभ, स्याग भाई, त्रिपाठी जी, अशोक केवट, पल्लवी, जीतेंद्र, सत्यजीत, जैसे प्यारे दोस्त जो अब कही इतने मशगुल हो गए है कि लगता है किसी संग्रहालय से निकल आये है. प्रेस के अजीज़ दोस्त- श्याम तोमर जो भास्कर रायपुर में काम करते है, से लगभग तीन साल बाद मिला मजा आ गया, ज्योत्सना पन्त से भी एक लंबे अरसे बाद मुलाक़ात हुई.... भोपाल की पत्रकारिता के नए रंग जो कमोबेश रोज बदलते है को फ़िर से देखा, बोर्ड ऑफिस के सामने वाला इंडियन काफी हाउस और बड़ा साम्भर के साथ उम्दा काफी, प्रेस के साथियों से मुलाक़ात -वही हडबडी, बेचैनी, माल बिकने का जोश और रोष, इलेक्ट्रानिक मीडिया के दोस्तों को टी आर पी का तनाव और फ़िर भागते दौडते कैमरा उठाकर कही पहुँचने की जल्दी .....भोपाल से बहुत सारे यादें जुडी है जब भी इस शहर में जाता हूँ तो " नास्टेल्जिक " हो जाता हूँ, शहर छोडने के बाद शहर पूरा का पूरा मेरे अंदर दौडता है जैसे....धौकनी में सांस और फ़िर वो सारे रास्ते, अड्डे, गालियाँ और चौराहे मानो जीवंत हो उठते है लोगो की व्यवहार और अब बदले हुए सब शख्स नजर आते है....ये भोपाल है जो पर्दा, जर्दा और नामर्दा के ही जाना जाता है बाबू.......

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हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही