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वो कमरा याद आता है

मैं जब भी ज़िंदगी की चिलचिलाती धूप में तपकर
मैं जब भी दूसरों के और अपने झूठ से थक...कर
मैं सबसे लड़के, खुद से हार के...जब भी उस कमरे में जाता था
वो हलके और गहरे कत्थई रंगों का कमरा
जो अपनी नर्म मुट्ठी में मुझे ऐसे छुपा लेता था
जैसे कोई मां, बच्चे को आँचल में छुपा ले...प्यार से डांटते
ये क्या आदत है
जलती दोपहर में मारे-मारे घूमते हो तुम
वो कमरा याद आता है...
मैं अब जिस घर में रहता हूँ
बहुत ही खूबसूरत है
मगर अक्सर यहाँ खामोश बैठा...याद करता हूँ
वो कमरा बात करता था...वो कमरा याद आता है...
*जावेद अख्तर साहब

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